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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गुणपच्चइगो छद्धा अणुगावट्ठिदपवड्ढमाणिदरा । देसोही परमोही सम्बोहित्ति य तिधा ओही ॥३७२।। गुण प्रत्ययकः षोढा अनुगावस्थितप्रवर्द्धमानेतरे। देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च त्रिधावधिः॥ __ आवुदोंदु गुणप्रत्ययावधिज्ञानमा अनुगमनुगामिये दुमवस्थितमें दु प्रवर्द्धमानमर्दु मूरु- ५ तेरनप्पुवु। इतरंगळु अननुगमननुगामिये दुमनवस्थितमें दुं हीयमानमुम दितिवु मूरुतेरनप्पुवंतु कूडि अनुगामि अननुगामि अवस्थितमनवस्थित वर्द्धमानहीयमानमेंदितु षड्विधमक्कुमल्लि आवुदो दवधिज्ञानं तन्न स्वामियप्प जीवनं बळिसल्गुमदनुगामिये बुदक्कुमदुर्बु क्षेत्रानुगामिये, भवानुगामियं दुं उभयानुगामिये दितु त्रिविधमक्कुमल्लि आवुदो दु तां पुट्टिद क्षेत्रदिदमन्यक्षेत्रदोळु विहारिसुव जीवनं बळिसल्गुं । भवांतरदोळु बळिसल्लददु क्षेत्रानुगामियबुदक्कुमावुदोंदु तां पुट्टिद १० भवदिदमन्यभवदोळं स्वस्वामियं बळिसल्गुमदु भवानुगामिये बुदक्कुमावदोंदु तां पुट्टिद क्षेत्रभवंगळेरडरणिदमन्यभरतैरावतविदेहादिक्षेत्रदोळं देवमनुष्यादिभवंगळोळं वर्तमानजीवमुं बळिसल्गुमदुभयानुगामियें बुदक्कुमावदोंदु तन्न स्वामियप्प जीवनं बळिसलुवुदल्लददननुगामियबुदक्कुमदुर्बु क्षेत्राऽननुगामिय दुं भवाननुगामियदुमुभयाननुगामियें दुं त्रिविधमक्कुं । मल्लि आवुदो दु क्षेत्रांतरमं बळिसल्वुदल्तदु तां पुट्टिद क्षेत्रदोळे किडुगुं । भवांतरं बळिसलगे मेण्माण्गे अदु क्षेत्रा- १५ यद्गुणप्रत्ययावधिज्ञानं तदनुगाम्यननुगाम्यवस्थितमनवस्थितं प्रवर्धमानं हीयमानं चेति षड्विधम् । तत्र यदवधिज्ञानं स्वस्वामिनं जीवमनुगच्छति तदनुगामि । तच्च क्षेत्रानुगामि भवानुगामि उभयानुगामीति त्रिविधम् । यत् स्वोत्पत्तिक्षेत्रात् अन्यक्षेत्रे विहरन्तं जीवमनुगच्छति भवान्तरं दानुगच्छति तत्क्षेत्रानुगामि भवति । यत् उत्पत्तिभवादन्यभवे स्वस्वामिनं अनुगच्छति तद्भवानुगामि भवति । यत्स्वोत्पत्तिक्षेत्रभवाभ्यां अन्यत्र भरतैरावतविदेहादिक्षेत्रे देवमनुष्यादिभवे च वर्तमानं जीवमनुगच्छति तदुभयानुगामि भवति । २० यदवधिज्ञान स्वस्वामिनं जीवं नानगच्छति तदननगामि । तदपि क्षेत्राननुगामि भवाननगामि उभयाननुगामोति त्रिविधम । तत्र यत्क्षेत्रान्तरं न गच्छति स्वोत्पत्तिक्षेत्रे एव विनश्यति भवान्तरं गच्छतु वा मा गच्छतु तत् क्षेत्राननुगामि । यद्भवान्तरं नानुगच्छति स्वोत्पत्तिभव एव विनश्यति, क्षेत्रान्तरं गच्छतु वा मा वा गच्छतु नहीं होती; केवल सम्यदर्शनादि गुणोंके कारण ही अवधिज्ञान प्रकट होता है, इसलिए वह गुणप्रत्यय कहा जाता है॥३७१॥ २५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान, अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान, हीयमानके भेदसे छह प्रकारका है। उनमें से जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीवका अनुगमन करता है, वह अनुगामी है । वह तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और उभयानुगामी ।जोअवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्रसे अन्य क्षेत्र में जानेवाले जीवके साथ जाता है, किन्तु भवान्तरमें साथ नहीं जाता,वह क्षेत्रानुगामी है। जो उत्पत्तिक्षेत्रसे स्वामीका मरण होनेपर ३° दूसरे भव में भी साथ जाता है, वह भवानुगामी है। जो अपने उत्पत्तिक्षेत्र और भवसे अन्यत्र भरत, ऐरावत, विदेह आदि क्षेत्रमें और देव, मनुष्य आदिके भवमें जीवका अनुगमन करता है,वह उभयानुगामी है । जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीवका अनुगमन नहीं करता, वह अननुगामी है। वह भी क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी, उभयाननुगामीके भेदसे तीन प्रकारका है। जो अवधि अन्य क्षेत्रमें नहीं जाता अपने उत्पत्तिक्षेत्र में ही नष्ट हो जाता है, ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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