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________________ ६२० गो. जीवकाण्डे ननुगामिये बुदक्कुमावुदोदु भवांतरमं बळिसल्वुदल्तु तां पुट्टिद भवदोळे केडगुं। क्षेत्रांतरमं बळिसळगे मण्माण्गे अदु भवाननुगामिय बुदक्कुमावुदोंदु क्षेत्रांतरमं भवांतरमुमं बसिल्वुदल्तु । स्वोत्पन्नक्षेत्रभवंगळोळे कडुगुमदुभयाननुगामिय बुदक्कुमावदोदु हानियुं वृद्धियुं इल्लदै सूर्य मंडलदंतेकप्रकारमागित्तिवर्कमदु अवस्थितावधिय बुदक्कुमावदोंदु ओम्में पेर्चुगुमोम्म ५ कुंदुगुमाम्म यवस्थितमागिय मदनवस्थितावधिज्ञानमें बुदक्कु । मावुदोंदु शुक्लपक्षद चंद्रमंडलदंते स्वोत्कृष्टपथ्यंत पेर्चुगुमदु व मानदेशावधिये बुदक्कुं । आवुदोंदु कृष्णपक्षद चंद्रमंडलदंते स्वक्षयपय्यंतं कुंदुगुमदु होयमानदेशावधियबुदक्कुमंते सामान्यदिदमवधिज्ञानं देशावधियें दुं दक्के परमावधियें दुं सर्वावधियुर्मेदितु विधा विप्रकारमक्कुमिनितु गुणप्रत्ययमप्प देशावधिये षट्प्रकारमक्कुं परमावधिसविधिगळल्तेंबुदथें । भवपच्चइगो ओहो देसोही होदि परमसव्योहो । गुणपच्चइगा णियमा देसोही वि य गुणे होदि ॥३७३॥ भवप्रत्ययावधिद्देशावधिर्भवति परमसविधिः । गुणप्रत्ययौ नियमाद् भवतः देशावधिरपि च गुणे भवति ॥ ___ आवुदोंदु पूक्तिभवप्रथयावधियदुनियमादवश्यंभावात् देशावधियेयकुं । देवनारकरु१५ गळ्गं गृहस्थतीर्थकरंगयं परमावधियं सर्वावधियं संभविसवप्पुरिद, परमावधियं सर्वावधियं नियदिदं गुणप्रत्ययंळेयप्पुवेक दोड संयमलक्षणगुणभवदोळा येरडक्कभावमप्पुरिदं देशावधियुतद्भवाननुगामि । यत् क्षेत्रान्तरं भवान्तरं च नानुगच्छति स्वोत्पन्न क्षेत्रभवयोरेव विनश्यति तत् क्षेत्रभवाननुगानि । यद्धानिवृद्धिभ्यां विना सूर्यमण्डलवत् एकप्रकारमेव तिष्ठति तदवस्थितम । यत् कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धीयते कदाचिदवतिष्ठते च तदनवस्थितम् । यत् शुक्लपक्षस्य चन्द्रमण्डलवत् स्वोत्कृष्टपर्यन्तं बर्द्धते तद् वधमानम् । यत् कृष्णपक्षचन्द्रमण्डलवत् स्वक्षयपर्यन्तं हीयते तद्धीयमानं देशावधिज्ञानं भवति । तथा सामान्येन अवधिज्ञानं देशावधिः परमावधिः सर्वावविश्व इति त्रिधा त्रिप्रकारं भवति । एवं गणप्रत्ययः देशावधिः षोढा न परमावधिराविधी इत्यर्थः ॥३७२॥ यः पवाको भवप्रत्ययोश्वधिः स नियमात--अवश्यंभावात देशावधिरेव भवति देवनारकयोर्गहस्थतीर्थकरस्य च परमाधिस योरसंभवात् । परमावधिः सर्वात विश्च द्वावपि नियमेन गुणप्रत्ययावेव भवतः २५ भवान्तरमें जाय यान जाने बद क्षेत्राननुगामी है। जो अन्य भवमें साथ नहीं जाता,अपने उत्पत्तिभव में ही छूट जाता, अन्य क्षेत्र में जाये या न जाये, वह भवाननुगामी है। जो न अन्य क्षेत्रमें साथ जाता है और न अन्य भवमें साथ जाता है अपने उत्पत्तिक्षेत्र अ ही छूट जाता है, वह क्षेत्र भवाननुगामी है। जो हानि-वृद्धिके बिना सूर्यमण्डलकी तरह एक रूप ही रहता है, वह अवस्थित है। जो कभी बढ़ता है, कभी घटता है, कभी तदवस्थ रहता ३० है, वह अनवस्थित है। जो शुक्लपक्षके चन्द्रमण्डलकी तरह अपने उत्कृष्ट पर्यन्त बढ़ता है, वह वधमान है। जो कृष्णपक्षके चन्द्रमण्डलकी तरह अपने क्षयपर्यन्त घटता है,वह हीयमान है। तथा सामान्यसे अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि, सर्वावधिके भेदसे तीन प्रकार है। इस प्रकार गुणप्रत्यय देशावधि छह प्रकारका है।परमावधि सर्वावधि नहीं ॥३७२।। पूर्वोक्त भवप्रत्यय अवधि नियमसे देशावधि ही होता है, क्योंकि देव, नारकी और ३५ गृहस्थ अवस्थामें तीर्थकरके परमावधि, सर्वावधि नहीं होते। परमावधि और सर्वावधि www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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