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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६१७ त्पन्नं केवलज्ञानं प्रत्यक्षं । समस्तत्वदिदं विशदं स्पष्टमक्कुं। मूर्तामूर्थिव्यंजनपर्यायस्थूलसूक्ष्मांशंगळप्प सर्ववरोळ प्रवृत्ति संभविसुगुमप्पुरिदं । साक्षात्करदिदमुं अक्षमात्मानमेव प्रतिनियतं परानपेक्षं प्रत्यक्षं। उपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्षं परोक्षमिति । एंदितु प्रत्यक्षपरोझशब्दनिरुक्तिसिद्धलक्षणभेददिदमा श्रुतज्ञानकेवलज्ञानंगळरा सादृश्याभावमक्कुमंत समंतभद्रस्वामिर्गाळदमुं पेळल्पद्रुदु । “स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवे" ५ देंदितु। [आप्तमी.] अनंतरं शास्त्रकारं पंचषष्ठिगाथासूत्रंगळिंदमवधिज्ञानप्ररूपणेयं पेळळुपक्रमिसिदपं । अबहीयदित्ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समये । भवगुणपच्चयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं ति ।।३७०॥ अवधीयत इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वणितं समये। भवगुणप्रत्ययविहितं यदवधिज्ञान- १० मितीदं ब्रुदंति। अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावंर्गाळदं परिमीयते पवणिसल्पडुगु में दितवधि ये बुददेके दोडे मतिश्रुतकेवलंगळंते द्रव्यादिळिदमपरिमितविषयत्वाऽभावमप्पुदरिदं सीमाविषयज्ञानमेंदु समये परमागमदोलु भणितं पेळल्पद्रुदु । यत् आवुदोंदु तृतीयज्ञानं भवगुणप्रत्ययविहितं भवो नरकादिपर्यायः गुणः सम्यग्दर्शनविशुद्धयादिः । भवश्च गुणश्च भवगुणौ तावेव प्रत्ययौ ताभ्यां कारणाभ्यां १५ स्वविषयप् अवधिज्ञानादिव साक्षात्करणाभावाच्च । सकलावरणवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयोत्पन्नं केवलज्ञानं प्रत्यक्षं समस्तत्त्वेन त्रिपदं स्पष्टं भवति । मूर्तामूर्थिव्यञ्जनपर्यायस्थूलसूक्ष्मांशेषु सर्वेष्वपि प्रवृत्तिसंभवात साक्षात्कारणाच्च । अदर आत्मानमेव प्रतिनियतं परानपेक्षं प्रत्यक्ष, उपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्षं परोक्षमिति निरुक्तिसिद्धलक्षणभेदात्तयोः श्रतज्ञानकेवलज्ञानयोः सादश्याभावात् । तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिभिः स्थादाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने ! भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत ।।- [आप्तमी०] २० ॥३६९।। अथ शास्त्रकारः पञ्च पष्टिगाथामू: अबधिज्ञानप्ररूपणामुपक्रमते अवधीयते-द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिमीयते इत्यवधिर्मतिश्रुतकेवलवद्रव्यादिभिरपरिमितविषयत्वाभावात् । यतृतीयं सीमाविषयं ज्ञानं समये परमागमे वणितं तदिदमवधिज्ञानमित्यहंदादयो ब्रुवन्ति । तत्कतिस्थूल अंशको अवधिज्ञानकी तरह साक्षात्कार करने में असमर्थ है। किन्तु समस्त ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयसे उत्पन्न केवलज्ञान पूर्ण रूपसे स्पष्ट होता है। मूत अमूत, अर्थ- २५ पर्याय, व्यंजनपर्याय, स्थूल अंश, सूक्ष्म अंश सभीमें उसकी प्रवृत्ति है और सभीको साक्षात् जानता है। अक्ष अर्थात् आत्मासे ही जो ज्ञान होता है, परकी अपेक्षा नहीं करता, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । उपात्त इन्द्रियादि और अनुपात्त प्रकाशादि परकारणोंकी अपेक्षासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है । इस प्रकार निरुक्तिसे सिद्ध लक्षणों के भेदसे श्रतज्ञान और केवलज्ञानमें समानता नहीं है । स्वामी समन्तभद्रने भी अपने आप्तमीमांसा ग्रन्थमें कहा है ३० स्याद्वाद अथोत् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व तत्त्वोंके प्रकाशक हैं, किन्तु भेद यही है कि केवलज्ञान साक्षात् प्रत्यक्ष जानता है और श्रुतज्ञान परोक्ष जानता है । जो इन दोनों ज्ञानों में से एकका भी विषय नहीं है, वह अवस्तु है ॥३६९।। अब शास्त्रकार पैसठ गाथाओंसे अवधिज्ञानका कथन करते हैं 'अवधीयते' अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके द्वारा जिसका परिमाण किया जाता है, ३१ वह अवधि है। अर्थात् जैसे मति, श्रुत और केवलज्ञानका विषय द्रव्यादिकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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