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________________ ६२४ गो० जीवकाण्डे इनितु क्षेत्रदोळु पूर्वोक्तजघन्यद्रव्यंगळेनितोळवनितुमं जघन्यदेशावधिज्ञानमरिगुल्लियं पोरगिदर्दुदनरियदेदितु क्षेत्रसीम पेळल्पद्रुदु । अवरोहिखेत्तदीहं वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो । अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहणपमाणं तु ॥३७९।' अवरावधिक्षेत्रदैध्य विस्तारोत्सेधकं न जानीमः । अन्यत्पुनः समकरणे अवरावगाहनप्रमाणं तु। जघन्यावधिविषयक्षेत्रदैग्यविस्तारोत्सेधप्रमाणमं नामरियेवु ईगळदरुपदेशाभावमप्पुरिदं । तु मत्ते परमगुरूपदेशपरंपरायातं मतो दुंदु समकरणदोलु भुजकोटिवेदिगळगे होनाधिकभावमिल्लदे समीकरणमागुतिरलु पुट्टिद क्षेत्रफलं जघन्यावगाहनप्रमाणं घनांगुलासंख्यातैकभागमात्रमक्कुमें१० बिदने बल्लवु। अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरं होदि हु तक्खेत्त समकरणे ॥३८०।। अवरावगाहनमानमुत्सेधांगुलासंख्यातभागस्य । सूच्याश्च घनप्रतरं भवति खलु तत् क्षेत्रसमकरणे। अंतादोडा सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तकन जघन्यावगाहनमेंतु दंतु प्रश्नमागुत्तिरलुत्तरवचनमिद तज्जघन्यावगाहनमनियतसंस्थानमक्कमादोडं क्षेत्रखंडनविधानदिदं भुजकोटि वेदिगळ्गे समकरणमागुत्तिरलुत्सेधांगुलमं परिभाषानिष्पन्नव्यवहारसूच्यंगुलमनावुदानुमोद संख्यातदिदं खंडिसि ज्ञानविषयभूतक्षेत्रप्रमाणं भवति ६।८। २२ । एतावति क्षेत्र पूर्वोक्तजघन्यद्रव्याणि यावन्ति संति तावन्ति २० प१९ । ८।९।८। २२ । १९ a aa जघन्यदेशावधिज्ञानं जानाति न तदबहिःस्थितानीति क्षेत्रसीमा कथिता ॥३७८॥ जघन्यावधिविषयक्षेत्रस्य दैग्य॑विस्तारोत्सेधप्रमाणं न जानीमः । इदानीं तदुपदेशाभावात् । तु पुनः परमगुरूपदेशपरम्परायातं जघन्यावगाहनप्रमाणं समकरणे-समीकरणे कृते सति घनाङ्गलासंख्यातकभागमात्रं भवति इत्यन्यत्पुनर्जानीमः ॥३७९।। तहि तत्सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जघन्यावगाहनं कोदग् अस्ति ? इति चेत्, तदवगाहनं अनियतसंस्थानमस्ति तथापि क्षेत्रखण्डनविधानेन भुजकोटिवेधानां समकरणे सति उत्सेधाङ्गुलपरिभाषानिष्पन्नव्यवहार२५ क्षेत्र में पूर्वोक्त प्रमाणवाले जितने जघन्य द्रव्य होते हैं, उन सबको जघन्य देशावधिज्ञान जानता है। उस क्षेत्रसे बाहर स्थितको नहीं जानता। इस प्रकार जघन्य देशावधिज्ञानके क्षेत्रकी सीमा कही ॥३७८॥ हम जघन्य देशावधि ज्ञानके विषयभूत क्षेत्रकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई नहीं जानते, क्योंकि इस कालमें उसका उपदेश नहीं प्राप्य है। किन्तु परम गुरुके उपदेशकी परम्परासे ३० इतना जानते हैं कि जघन्य अवगाहनाके प्रमाणका समीकरण करनेपर क्षेत्रफल घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होता है ॥३७९।। प्रश्न होता है कि वह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना कैसी है ? काला उत्तर यह है कि उस जघन्य अवगाहनाका आकार नियत नहीं है। फिर भी क्षेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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