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________________ ६८५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पंचसमितयोऽस्यसंतीति पंचसमितः। पंचसमितियुक्तर्नु तिस्रो गुप्तयोऽस्मिन्निति त्रिगुप्तः त्रिगुप्तिगळोळ्कूडिदनु सदापि सर्वदापि एल्ला कालमुसावद्यं प्राणिवधर्म परिहरति परिहरिसुगुं। यः आवनोन्यं पंचैकयमः पंचैकयमनुळ्ळ पुरुषः पुरुषनु सः आतं परिहारकसंयतः खलु परिहारविशुद्धिसंयतनक्कुं स्फुटमागि। तीसं वासो जम्मे बासपुधत्तं खु तित्थयरमूले । पच्चक्खाणं पढिदो संझूणदुगाउयविहारो ॥४७३।। त्रिंशद्वर्षो जन्मनि वर्षपृथक्त्वं खलु तीत्थंकरमूले । प्रत्याख्यानं पठितः संध्योनद्विगव्यूतिविहारः॥ जन्मदोळु त्रिंशद्वर्षमनुळं सर्वदा सुखियप्पं बंदु दीक्षगोंडु वर्षपृथक्त्वं बरं तीर्थकर श्रीपादमूलदोळु प्रत्याख्यानमें बोभत्तनय पूर्वमं पठियिसिदातं परिहारविसुद्धिसंयममं कैकोंडु १० संध्यात्रयन्यूनसर्वकालदोळरडु क्रोशप्रमाणविहारमनुळं रात्रियोळ्विहाररहितनुं प्रावृट्कालनियममिल्लदनुं परिहारविशुद्धिसंयमनक्कु। परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिस्तेन परिहारेण विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् स परिहारविशुद्धिस्संयमो यस्य स परिहारविशुद्धिसंयमः एंदितु परिहारविशुद्धिसंयमंगे जघन्यकालमंतर्मुहूर्तमक्कु मेके दोडे परिहारविशुद्धिसंयममं पोद्दि जघन्यकालपर्यतमिन्यगुणस्थानमं पोद्दिदंगे तदंतमहतकालसंभवमक्कुमप्पुरिदं । उत्कृष्टदिदमष्ट- १५ त्रिंशद्वर्षन्यूनपूर्वकोटिवर्षमक्कुमेके दोडे पुट्टिददिनं मोदगोंडु मूवत्तु वर्षबरं सर्वदा सुखियागि कालमं कळेदु संयममं पोद्दि मेले वर्षपृथक्त्वं बरं तीर्थंकरश्रीपादमूलदोळु प्रत्याख्याननामधेय पञ्चसमितिसमेतः त्रिगुप्तियुतः सदापि प्राणिवधं परिहरति, यः पश्चानां सामायिकादीनां मध्ये परिहारविशुद्धिनामैकसंयमः पुरुषः सः परिहारविशुद्धिसंयतः स्फुटं भवति ॥४७२॥ ___ जन्मनि त्रिंशद्वार्षिकः सर्वदा सुखी सन्नागत्य दीक्षां गृहीत्वा वर्षपृथक्त्वपर्यन्तं तीर्थकरश्रीपादमूले २० प्रत्याख्यानं नवमपर्व पठितः स परिहारविशद्धिसंयम स्वीकृत्य संध्यात्रयोनसर्वकाले द्विक्रोशप्रमाणविहारी रात्री विहाररहितः प्रावृट्कालनियमरहितः परिहारविशुद्धिसंयतो भवति । परिहरणं परिहारः, प्राणिवधान्निवृत्तिः, तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् स परिहारविशुद्धिः, स संयमो यस्य स परिहारविशुद्धिसंयमः, तस्य जघन्यकालोन्तमुहूर्तः, जघन्येन तावत्कालमेव तत्र स्थित्वा गुणस्थानान्तरश्रयणात् । उत्कृष्टः अष्टत्रिंशद्वर्षोनपूर्वकोटिः, उत्पत्ति जो पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर सदा ही प्राणिवधसे दूर रहता है, २५ वह सामायिक आदि पांच संयमोंमें-से परिहारविशुद्धि नामक एक संयमको धारण करनेसे परिहारविशुद्धि संयमी होता है ।।४७२।। जन्म से तीस वर्ष तक सर्वदा सुखपूर्वक रहते हुए उसे त्याग दीक्षा ग्रहण करके वर्षपृथक्त्वपर्यन्त तीर्थकरके पादमूलमें जिसने प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्वको पढ़ा है, वह परिहारविशुद्धि संयमको स्वीकार करके सदा काल तीनों सन्ध्याओंको छोड़कर दो कोस ३० प्रमाण विहार करता है, रात्रिमें विहार नहीं करता, वर्षाकालमें उसके विहार न करनेका नियम नहीं रहता, वह परिहारविशुद्धि संयमी होता है। परिहरण अर्थात् प्राणिहिंसासे निवृत्तिको परिहार कहते हैं। उनसे विशिष्ट शुद्धि जिसमें है। वह परिहारविशुद्धि है। वह संयम जिसके होता है,वह परिहारविशुद्धि संयमी है। उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि कमसे कम इतने काल पर्यन्त ही उस संयममें रहकर अन्य गुणस्थानोंमें चला जाता ३९ है। उत्कृष्ट काल अड़तीस वर्ष कम एक पूर्व कोटि है क्योंकि उत्पत्ति दिनसे लेकर तीस वर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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