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________________ ९४० गो० जीवकाण्डे द्रव्यपुरुष- भावस्त्रीयुमप्प प्रमत्तविरतनोळु तु मत्त आहारकाहारकांगोपांगनामकर्मोदयं नियमदिदमिल्लं । तु शब्ददिनऽशुभवेदोदयदोळमनःपयंयज्ञानमुं परिहारविशुद्धिसंयममुं घटिसवु । भावमानुषियोळु चतुर्दशगुणस्थानंगळु घटिसुववल्लदे द्रव्यमानुषियोळग्दे गुणस्थानंगळे दरिवुदु । अपगतवेदनप्प अनिवृत्तिकरणमानुषियोळु संज्ञा । कार्य्यरहितमैथुनसंज्ञेयं । भूतपूर्वगतिन्यायमना५ श्रयिसियक्कुं। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमुमं मनःपर्ययज्ञानियोळुटु । परिहारविशुद्धिसंयमिगळोळं आहारकऋद्धिप्राप्तरोळं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमिल्लेके दोडे मूवत्तुं वर्षगळिल्लदे परिहारविशुद्धिसंयमक्क संभवाभावमप्पुरिदं तावत्कालमुपशमसम्यक्त्वक्कवस्थानमिल्लप्पुरदं आउदोंदु। परिहारविशुद्धिसंयमदोडने उपशमसम्यक्त्वक्कुपलब्धियक्कुंमप्पोडे । परिहारविशुद्धिसंयममं बिडदि इंतप्पंगे उपशमश्रेण्यारोहणात्य दर्शनमोहनीयक्के उपशमनमुं संभविसुवुदल्तु । हेंगे परिहार१० विशुद्धिसंयमोडनुपशमश्रेणियोळे, द्वितीयोपशभक्के संयोगमकुं॥ रलद्धि अपज्जत्ते एक्को दु अपुण्णगो दु आलावो। लेस्साभेदविभिण्णा सत्तवियप्पा सुरट्ठाणा ॥७१६॥ नरलब्ध्यपर्याप्ते एकस्त्वपूर्णालापः । लेश्याभेदविभिन्नानि सप्तविकल्पानि सुरस्थानानि ।। द्रव्यपुरुषभावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारकतदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेन नास्ति । तुशब्दात् अशुभ१५ वेदोदये मनःपर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । भावमानुष्यां चतुर्दशगुणस्थानानि, द्रव्यमानुष्यां पञ्चवेति ज्ञातव्यं । अपगतवेदानिवृत्तिकरणमानुष्यां कार्यरहितमैथुनसंज्ञा भूतपूर्वगतिन्यायमाश्रित्य भवति । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनःपर्ययज्ञानिनि स्यात् । न चाहारकधिप्राप्तेनापि परिहारविशुद्धौ त्रिंशद्वर्षेविना तत्संयमस्यासंभवात् तत्सम्यक्त्वस्य तु तावतकालं अनवस्थानात । अत्यक्ततत्संयमस्य उपशमश्रेणिमारोढमपि दर्शनमोहोपशमाभावाच्च तवयसंयोगाघटनात् ॥७१५॥ द्रव्यसे पुरुष और भावसे स्त्रीरूप प्रमत्त विरतमें आहारक शरीर और आहारक अंगोपागका उदय नियमसे नहीं होता। 'तु' शब्दसे अशुभ वेद स्त्री और नपुंसकके उदयमें मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होते। भावमानुषीके चौदह गुणस्थान होते हैं और द्रव्यमानुषीके पाँच ही जानना। वेद रहित अनिवृत्तिकरणमें मानुषीके कार्य रहित मैथुन संज्ञा भूतपूर्वगति न्यायकी अपेक्षा कही है अर्थात् वेदरहित होनेसे पहले मैथुन २५ संज्ञा थी, इस अपेक्षा कही है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और मनःपर्ययज्ञान जो आहारक ऋद्धिको प्राप्त हैं अथवा परिहार विशुद्धि संयमवाले हैं ,उनके नहीं होते। क्योंकि तीस वर्षकी अवस्था हुए बिना परिहार विशुद्धि संयम नहीं होता और प्रथमोपशम इतने काल तक रहता नहीं है तथा परिहारविशुद्धि संयमको त्यागे बिना उपशम श्रेणिपर आरोहण भी नहीं होता और दर्शन मोहका उपशम भी नहीं होता, अतः द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी नहीं ३० होता ।।७१५॥ १. म सुवुदल्तावुशेदु परि । २. म योलेरउक्कं संयोगमिल्लप्पुदरिंदं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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