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________________ ८५० गो० जीवकाण्डे अण्णोण्णुवयारेण य जीवा वटुंति पोग्गलाणि पुणो । देहादीणिव्वत्तणकारणभूदा हु णिय मेण ॥६०६।। अन्योन्योपकारेण च जीवा वर्तते पुद्गलाः पुनः। देहादीनां निवर्तनकारणभूताः खलु नियमेन ॥ अन्योन्योपकारदिदं स्वामिभृत्यनाचार्यशिष्यने दितेवमादिभावदिदं वर्तनं परस्परोपग्रहमक्कुं। अन्योन्योपकारमेंबुदक्कुमेंबुदर्थमौतेंदोडे स्वामि येवं भृत्यरुगळ्गे वित्तत्यागाद्युपकारदोळु वत्तिसुगुं। भृत्यरुगळु हितातिपादनदिदमुपहितप्रतिषेधनदिदमुं वत्तिसुवरुं । आचार्य्यनुमुभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनदिदं तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठानदिदमुं शिष्यरुगल्गुपकारदोलु वतिसुगं। शिष्यरुगडं तदानुकूल्यवृत्तियिंदमुपकाराधिकारंगळोळु वत्तिसुगुं। इतन्योन्योपकारदिदं जीवंगळु १० वत्तिसुववु । च शब्ददिदमनुपकारदिदमुं वत्तिपुवु । अनुभदिदमुं वत्तिपुवु । पुद्गलाः पुनर्देहादीनां खलु निर्वर्तनकारणभूताः नियमेन पुद्गलंगळु मत्त जीवंगळ देहादिगलनिवर्तनकारणभूतंगळप्पुवल्लिदेहग्रहदिदं कर्मनोकम्मंगळ्गे ग्रहणमक्कुं। नोकर्मकर्मवाग्मनउच्छ्वासनिःश्वासंगळ निर्वर्तनकारणभूतंगळु नियमदिदं पुद्गलंगळप्पुबुदर्थमिल्लि पूर्वपक्षमं माडिदपं कर्ममपौद्गलिकमेके दोडे अनाकारत्वदिदं । आकारवंतंगळप्पौदारिकादिगळ्गे पौद्गलिकत्वं युक्तम दितिदक्कुत्तरमंतल्तेके दोडे १५ कर्ममुं पौद्गलिकमेयक्कुं तद्विपाकक्के मूत्तिमत्संबंधनिमित्तत्वदिदं काणल्पटुदु बीह्यादिगळ्गे उदकाविद्रव्यसंबंधप्रापितपरिपाकंगळ्गे पौद्गलिकत्वमंते कार्मणमुं लगुडकंटकादिमूत्तिमद्दव्योप अन्योन्यमुपकारेण जीवा वर्तन्ते यथा स्वामी भृत्यं वित्तत्यागादिना, भृत्यस्तं हितप्रतिपादनाहितप्रतिषेधादिना, आचार्यः शिष्यं उभयलोकफलप्रदोपदेशक्रियानुष्ठानाभ्यां, शिष्यस्तं आनुकूल्यवृत्युपकाराधिकारैः, चशब्दात् अनुपकारानुभयाभ्यामपि वर्तन्ते । पुद्गलाः पुनः देहादीनां कर्मनोकर्मवाङ्मनउच्छ्वासनिश्वासानां निर्वर्तनकारणभूताः खलु नियमेन भवन्ति । ननु कर्मापौद्गलिकं अनाकारत्वात-आकारवतामौदारिकादीनामेव तथात्वं युक्तमिति तन्न, कर्मापि पौद्गलिकमेव लगुडकण्टकादिमूर्तद्रव्यसंबन्धेन पच्यमानत्वात् । उदकादिमूर्तद्रव्यसंबन्धेन व्रीह्यादिवत् । वाक् द्वेधा द्रव्यभावभेदात् । तत्र भाववाग् वीर्यान्तरायमतिश्रुतावरणक्षयोप जीव परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं। जैसे स्वामी अपने धन आदिके द्वारा सेवकका उपकार करता है और सेवक हितकी बात कहने तथा अहितसे रोकने आदिके द्वारा स्वामीका उपकार करता है। गुरु इस लोक और परलोकमें फल देनेवाले उपदेश तथा क्रियाके अनुष्ठान द्वारा शिष्यका उपकार करता है और शिष्य गुरुके अनुकूल रहकर उनका उपकार करता है। पुद्गल शरीर आदि तथा कर्म-नोकमें, वचन, मन, उच्छ्वास, निश्वास आदिकी रचनामें नियमसे कारण होते हैं। शंका-कर्म पौद्गलिक नहीं है। क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है। आकारवाले जो औदारिक आदि शरीर हैं,उन्हें ही पौद्गलिक मानना युक्त है ? समाधान-नहीं, कर्म भी पौद्गलिक ही है, क्योंकि लाठी, काँटा आदि मूर्तद्रव्यके सम्बन्धसे ही फल देता है जैसे पानी आदि मूर्तद्रव्यके सम्बन्धसे पकनेवाले धान मूर्त हैं। द्रव्य और भावके भेदसे वाक् दो प्रकार की है। भाववाक् वीर्यान्तराय, मतिज्ञाना ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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