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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका ८५१ पातमागुत्तं विरलु विपच्यमानत्वदिदं पौद्गलिकमदे निश्चैसल्पडुवुदु । वाग् द्विप्रकारमक्कुं द्रव्यवाक् भाववादितल्लि भाववाक् बुदु वीर्य्यातरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभनिमित्तत्वदिदं पौद्गलिकयक्कुमेके दोडे तदभावमागुत्तिरलु तवृत्त्यभावमप्पुरिदं । तत्सामोपेतत्वदिद क्रियावंतनप्पामनिदं प्रेय॑माणंगळप्प पुद्गलंगळु. वाक्वदिदं परिणमिसुवर्वेदितु द्रव्यवाक्कुं पौद्गलिकयक्कुं मेके दोडे श्रोत्रंद्रियविषयत्वदिदं इतरेंद्रियविषयमेनु कारणमागदें दोडे तद्ग्रहणा- ५ योग्यवदिदं घ्राणग्राह्यगंधद्रव्यदोळु रसनाधनुपलब्धियंते, अमूतं वाक्क देत्तलानुमें बेयप्पोडे युक्त मल्तेके दोड मूत्तिमद्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनदिदं मूत्तिमत्त्व सिद्धियप्पुरिदं। मनमुं द्विप्रकारमक्कु द्रव्यभावभेददिदल्लि भावमनस्से बुदु लब्ध्युपयोगलक्षणं पुद्गला. लंबनदिदं पौद्गलिकमक्कुं। द्रव्यमनमुं ज्ञानावरणवी-तरायक्षयोपशमांगोपांगनामलाभप्रत्ययंगळप्प गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखमप्पात्मंगनुग्राहकपुद्गलंगळुमनस्त्वदिदं परिण- १० तंगळे दितु पौद्गलिकमक्कुं। वोवने दपं:-मनं द्रव्यांतरं रूपादिपरिणमनविरहितमणुमात्र शमाङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभनिमित्तत्वात् पौद्गलिका तदभावे तवृत्त्यभावात् । तत्सामोपेतत्वेन क्रियावतात्मना प्रेर्थमाणपुद्गलाः वाक्त्वेन परिणमन्तीति द्रव्यवागपि पौद्गलिकैव श्रोत्रेन्द्रियविषयत्वात् । इतरेन्द्रियविषयापि कुतो न स्यात् तद्ग्रहणायोग्यत्वात् घ्राणग्राह्ये गन्धद्रव्ये रसनाद्यनुपलब्धिवत् । अमूर्ता वाग् इत्यप्ययुक्तं मूर्तर्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनात् मूर्तत्वसिद्धेः । मनोऽपि तथा द्वेधा । तत्र भावमनः लब्ध्युपयोगलक्षणं १५ पुद्गलालम्बनात् पौद्गलिकम् । द्रव्यमनोऽपि ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभप्रत्ययगुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकपुद्गलानां तथात्वेन परिणमनात् पौद्गलिकम् । कश्चिदाह-मनः द्रव्यान्तरं रूपादिपरिणमनविरहितमणुमात्रं, पौद्गलिकं न । आचार्य आह-तेन आत्मनः वरण और श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामक कर्मके उदयके निमित्तसे होनेसे पौद्गलिक है। उसके अभावमें भाववचन-बोलने की शक्ति नहीं होती। भाववचनकी २० शक्तिसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेरित पुद्गल वचन रूप परिणत होते हैं, इसलिए द्रव्यवाक् भी पौद्गलिक ही है,क्योंकि श्रोत्र इन्द्रियका विषय है। शंका-जब वचन पौद्गलिक है,तो अन्य इन्द्रियोंका भी विषय क्यों नहीं है ? समाधान-वह अन्य इन्द्रियोंसे ग्रहण करनेके अयोग्य है ; जैसे घ्राण इन्द्रियसे ग्राह्य सुगन्धितं द्रव्यमें रसना आदि इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती। वचन अमूर्तिक है ऐसा कहना भी अयुक्त है, क्योंकि मूर्त इन्द्रियके द्वारा शब्दका ग्रहण होता है, मूर्त दीवार आदिसे रोका जाता है, मूर्त पदार्थसे टकराता है तथा बहुत तीव्र शब्दसे मन्द शब्द दब जाता है। इससे वचन मूर्तिक सिद्ध होता है । मन भी दो प्रकारका है-भावमन और द्रव्यमन। भावमन लब्धि और उपयोग लक्षणवाला है। वह पुद्गलके अवलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है । द्रव्यमन भी पौद्गलिक है क्योंकि ज्ञानावरण ३० और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयसे जब आत्मा गुण-दोषके विचार, स्मरण आदिके अभिमुख होता है, तो उसके उपकारी पुद्गल मन रूपसे परिणमन करते हैं,इसलिए पौद्गलिक है। किसीका कहना है-मन एक पृथक् द्रव्य है, उसमें रूपादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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