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________________ ८५२ गो० जोवकाण्डे मदक्के पौद्गलिकत्वमयुक्तम दितु ये दोडाचार्याने दपं-आ इंद्रियदोडनात्मंगे संबंधमुंटो मेणु संबंधमिल्लमो? येत्तलानुं संबंधमिल्लेबयप्पोडदल्तेके दोडे आत्मगुपकारमागल्वेळ्कुमाउपकारमं माडदु इंद्रियक्कं साचिव्यम सचिवत्वमुमं माडदु अथवा संबंधमुंबयप्पोडे एकप्रदेशसंबंधमप्पु दरिदमा अणुवुमितरप्रदेशंगळोळपकारमं माडदु। अष्टवशादिना मनक्कलात चक्रदंते परिभ्रमण५ मुंटे बेयप्पोडदुर्बु संभविसदेके दोडे अणुमात्रक तत्सामर्थ्याभावमप्पुरिदं । अमूर्तनप्पात्मंगे निष्क्रियंगे अद्रष्टमप्प गुणमन्यत्रक्रियारंभदोळु समर्थमन्तु अहंगे काणल्पद्रुदु । वायुद्रव्यविशेष क्रियावंतमुं स्पर्शनवंतमुं प्राप्तमादुदु वनस्पतियोल परिस्पंदहेतुवक्कुं तद्विपरीतलक्षणमी यणुभ दितु क्रियाहेतुत्वाभावमक्कुं । दीर्यांतरायज्ञानावरणक्षयोपमांगोपांगनामोदयापेक्षदिदमात्मनिंदुदस्यमानकण्यम प वायुउच्छ्वासलक्षणमप्पुदु प्राणमें दु पेळल्पद्रुदु । आ वायुविंदनेयात्मंगे पोरगण वायुवनभ्यंतरीक्रियमाणनिश्वासलक्षणमपानमदु पेळल्पटुदु । इंता येरडुमात्मंग अनुग्राहिगळ प्युवेक दो जीवितहेतुत्वदिदमा मनःप्राणापानगळ्गे मूत्तिमत्वमरियल्प. डुवुदेके दोडे प्रतिघातादिदर्शनदिदं प्रतिभयहेतुगळप्पऽशनिपातादिळिदं मनक्के प्रतिघातं काण. ल्पद्रुदु। सुरादिर्गाळ स्वादिर्गाळदमप्प पूतिगंधिप्रतिभयदिंद हस्ततलपुटादिलिंदमास्यसंवरणदिदं सम्बन्धः स्यात् न वा ? यदि न, तन्न आत्मनः उपकारेण भाव्यं तन्नोपकुर्वीत, इन्द्रियस्य साचिव्यं सचिवत्वं १५ न कुर्यात् । अथ स्यात्, तदा एकदेशसम्बन्धेन सोऽणु: इतरप्रदेशेषु नोपकुर्यात् । अथादृष्टवशेन तस्यालातचक्र वत्परिभ्रमणं तदप्यसंभाव्यं, अणुमात्रस्य तत्सामर्थ्याभावात्, अमूर्तस्य आत्मनो निष्क्रियस्यादृष्टगुणः अन्यत्र क्रियारम्भे समर्थो न । वायुद्रव्यं हि क्रियावत् स्पर्शवत् प्राप्तवनस्पतौ परिस्पन्दहेतुः तद्विपरीतलक्षणोऽयमणुस्तादृक् क्रियाहेतुर्न स्यात् । वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपागनामोदयापेक्षेणात्मनोदस्यमानकण्ठ्यवायुः उच्छ्वासलक्षणः स प्राणः । तेनैव वायुना आत्मनो बाह्यवायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निश्वासलक्षणः अपानः । २० तौ च आत्मनोऽनुग्राहिणी जीवितहेतुत्वात् , ते च मनःप्राणापाना मूर्तिमन्तः, मनसः प्रतिभयहेत्वशनिपातादिभिः नहीं है तथा वह परमाणु बराबर है, पौद्गलिक नहीं है। आचार्य कहते हैं-उस अणुरूप मनका सम्बन्ध आत्माके साथ है या नहीं है। यदि नहीं है, तो वह आत्माका उपकार नहीं कर सकता और न इन्द्रियोंकी ही सहायता कर सकता है। यदि सम्बन्ध है,तो उस अण रूप मनका सम्बन्ध आत्माके एक देशके साथ ही हो सकता है और ऐसी स्थिति में वह २५ अन्य प्रदेशों में उपकार नहीं कर सकता। यदि कहोगे कि अदृष्ट वश वह अणुरूप मन समस्त आत्मामें अलातचक्रकी तरह भ्रमण करता है, इससे उसका सर्वत्र सम्बन्ध होता है , तो वह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि अणुमात्र मनमें ऐसी सामर्थ्यका अभाव है। तथा अमूर्त और क्रियारहित आत्माका गुण अदृष्ट अन्य में क्रिया कराने में समर्थ नहीं है। वायु क्रियावान और स्पर्शवान होनेसे प्राप्त वृक्षादिमें हलनचलन करने में कारण होती है। किन्तु यह अणुरूप ३० मन तो उससे विपरीत लक्षणवाला है, इसलिए उस प्रकारकी क्रिया में हेतु नहीं हो सकता। वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षासे आत्माके द्वारा जो अन्दरकी वायु बाहर निकाली जाती है, उसे उच्छ्वास रूप प्राण कहते हैं। और उसी आत्माके द्वारा जो बाहरकी वायु भीतरकी ओर ली जाती है, उसे निश्वास रूप अपान कहते हैं। ये प्राण अपान भी आत्माके उपकारी हैं, क्योंकि उसके जीवन में हेतु ३५ होते हैं । वे मन, प्राण अपान मूर्तिमान हैं,क्योंकि भयके हेतु वनपात आदिसे मनका, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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