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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९१९ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोवल्गोंडु पविनाल्कु गुणस्थानंगळोळु पर्याप्तिगळं प्राणंगळू पृथक्कागि पेळल्पडवेक दोर्ड सुगमंगळप्पुरिदमदतेंदोडे क्षीणकषायगुणस्थानपर्यंत प्रत्येकमारुपर्याप्तिगळं दशप्राणंगळुमप्पुबु । सयोगिकेवलिभट्टारकनोळ भावेंद्रियमिल्ल। द्रव्येद्रियापेक्षयिनारं पर्याप्तिगळोळवु वाग्बलप्राणमुमुच्छ्वासनिश्वासप्राणमुमायुःप्राणमुं कायबलप्राणमें बो नाल्कु प्राणंगळप्पुवु । उलिदिद्रिय प्राणंगळय्दुं मनोबलप्राणमुं संभविसवु। आ सयोगकेवलिगे वाग्योगं निलुत्तिरलु मूरु प्राणंगळप्पुवु । उच्छ्वासनिःश्वासनुपरतमागुत्तिरलूमेरडेप्राणंगळप्पुवु। अयोगि भट्टारकनोळ आयुष्यप्राणमो देयक्कु। पूर्वसंचितनोकर्मकर्मसंचयं प्रतिसमयमेकैकनिषेकस्थितिगळिसि चरमसमयदोळु किंचिन्न्यूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्रनोकर्मसंचयमुं कर्मसंचयमुमुदयिसि द्रव्याथिकनयापेक्षेयिंदमयोगिचरमसमयदोळ कर्ममुं नोकर्म, कट्टवु पर्यायाथिकनयापेक्षयिननंतरसमयदोळिकडुत्तिरलु लोकाग्रनिवासि सिद्धपरमेष्ठियप्पने बुदु तात्पर्य । अनंतर गुणस्थानंगळोळु संज्ञेगळं पेळ्दपरु : छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा । पुढ्यो पढमणियट्टी सुहुमोत्ति कमेण सेसाओ ॥७०२॥ षष्ठपय्यंतं प्रथमसंज्ञा सका- शेषाश्च कारणापेक्षाः । अपूर्वप्रथमानिवृत्ति सूक्ष्मपय्यंतं क्रमेण शेषाश्च ॥ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि प्रमत्तगुणस्थानपर्यंतमूलं गुणस्थानंगळोळु सकार्यमप्पाहारादिचतुःसंज्ञेगळमप्पुवा षष्ठनल्लि आहारसंज्ञे व्युच्छित्तियाय्तु । उपरितनगुणस्थानदोळऽभावमं चतुर्दशगुणस्थानेषु पर्याप्तयः प्राणाश्च पृथक् नोच्यन्ते सुगमत्वात् । तथाहि-क्षीणकषायपर्यन्तं षट्पर्याप्तयः दश प्राणाः । सयोगजिने भावन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट्पर्याप्तयः वागुच्छ्वासनिश्वासायुःकायप्राणाश्चत्वारि भवन्ति । शेषेन्द्रियमनःप्राणाः षट् न सन्ति । तत्रापि वाग्योगे विश्रान्ते त्रयः । पुनः २० उच्छवासनिश्वासे विधान्ते द्वौ । अयोगे आयुः प्राण एकः । प्रासंचितनोकर्मकर्मसंचयः प्रतिसमयमेकैकनिषेक गलन् किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रो द्रव्यार्थिकनयेन अयोगिचरमे विनश्यति पर्यायाथिकनयेन अनन्तरसमये एवेति तात्पर्यम् ॥७०१॥ अथ गुणस्थानेषु संज्ञा आह मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तान्तं सकार्याः आहारादिचतस्रः संज्ञा भवन्ति । षष्ठगुणस्थाने आहारसंज्ञा चौदह गुणस्थानों में पर्याप्ति और प्राण पृथक् नहीं कहे हैं ; क्योंकि सुगम है। यथा- २५ क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त छह पर्याप्तियाँ और दस प्राण होते हैं । सयोगकेवलीमें भावेन्द्रिय नहीं है। उनके द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षा छह पर्याप्तियाँ हैं और वचनबल, उच्छ्वास-निश्वास, आयु और कायबल ये चार प्राण होते हैं। शेष इन्द्रियाँ और मन ये छह प्राण नहीं हैं। उन चार प्राणों में से भी वचनयोगके रुक जानेपर तीन रहते हैं, पुनः उच्छ्वास-निश्वासका निरोध होनेपर दो रहते हैं। अयोगकेवलीके एक आयुप्राण होता है। पूर्व संचित कर्मनोकर्मका संचय प्रतिसमय एक-एक निषेक गलते-गलते किंचित न्यन डेढ गणहानि प्रमाण रहता है। सो द्रव्यार्थिक नयसे तो अयोगीके अन्तिम समयमें नष्ट होता है और पर्यायार्थिक नयसे अनन्तर समयमें नष्ट होता है ।।७०१।। गुणस्थानोंमें संज्ञा कहते हैंमिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त आहार आदि चारों संज्ञाएँ कार्यरूपमें ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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