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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७७९ कृष्णलेश्याप्रभृति षड्लेश्यगळगं कालं नानाजीवापेक्षयिदं सर्वाद्धियक्कुमेकजीवापेक्षेयिदं जघन्यकालमंतर्मुहूर्तमक्कुं।
उवहीणं तेत्तीसं सत्तर सत्तेव होंति दो चेव ।
अट्ठारस तेत्तीसा उक्कस्सा होंति अदिरेया ।।५५२॥ उदधीनां त्रयस्त्रिंशत् सप्तदश सप्तैव भवंति द्वावेवाष्टादश त्रयस्त्रिंशत् उत्कृष्टा भवंत्यतिरेकाः॥ ५
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमंगळं ३३। सप्तदशसागरोपमंगळं १७ । सप्तसागरोपमंगळु ७। यथासंख्यमागि कृष्णलेश्याप्रभृत्यशुभलेश्यात्रयंगळगुत्कृष्टकालंगळप्पुवु । तेजोलेश्याप्रभृति शुभलेश्यात्रयंगळ्गे यथासंख्यमागियुत्कृष्टकालमेरडुसागरोपमंगळं पदिनेटु सागरोपमंगळं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमंगळं साधिकमधिकमागप्पुर्व ते दोडे षड्लेश्यगळ्गे व्याघातविषयविवयिदं जघन्यकालमंतर्मुहत्तगाळ समधिकमाद कृष्णलेश्याप्रभृतिषड्लेश्येगळोळु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिगळुत्कृष्टकालंगळप्पुवुविते- १० करडेरडुमंतर्मुहूत्तळिदं समधिकंगळादुवे दोडे नारकदेवभवंगळतणिदं पूर्वभवचरमकालदोळं उत्तरभवप्रथमसमयदोळमंतर्मुहूर्तांतर्मुहूर्तकालमा लेश्यगळेयप्पुरिदं मत्तमिल्लिविशेषमुंटदावुदें दोडे तेजःपद्मलेश्येगळणे किंचिदून सागरोपमार्द्धमतिरेकमक्कुमेके दोडे सौधर्मकल्पं मोदल्गोंडु सहस्रारकल्पपयंतं स्वस्वोत्कृष्टस्थितिगळ मेले घातायुष्कजीवापेक्षयिंदमंतर्मुहूर्तोनार्द्धसागरोपमं सम्यग्दृष्टिगळगे पळितोपमासंख्यातेकभागं मिथ्यादृष्टिगळ्गभ्यधिकमक्कुमप्पुरिदं संदृष्टि :- १५
कृष्णादिषड्लेश्यानां कालः नानाजीवं प्रति सर्वाद्धा सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येन अन्तर्मुहूर्तो भवति ॥५५॥
उत्कृष्टस्तु सागरोपमाणि कृष्णायास्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । नीलायाः सप्तदश १७ । कपोतायाः सप्त ७ । तेजोलेश्याया द्वे २ । पद्माया अष्टादश १८ । शुक्लायास्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । साधिकानि भवन्ति अव्याघातविषये । तदाधिक्यं तु देवनारकभवेभ्यः पूर्वभवचरमान्तर्मुहूर्तः उत्तरभवप्रथमान्तर्मुहूर्तश्च षण्णां । तेजःपद्मयोः पुनः २० किंचिदूनसागरोपमार्धमपि, कुतः सौधर्मादिसहस्रारपर्यन्तं स्वस्वोत्कृष्टस्थितरुपरि घातायुष्कस्य सम्यग्दृष्टेरन्त
___ इस प्रकार स्पर्शाधिकार समाप्त हुआ। अब दो गाथाओंसे कालाधिकार कहते हैंकृष्ण आदि छह लेश्याओंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूत है ।।५५१।।
उत्कृष्टकाल कृष्णका तैंतीस सागर है, नीलका सतरह सागर है, कपोतका सात सागर । है, तेजोलेश्याका दो सागर है। पद्मका अठारह सागर है और शुक्लका तैंतीस सागर है। यह काल कुछ अधिक-अधिक होता है। इसका कारण यह है कि यह काल देव और नारकियों की अपेक्षा कहा है । सो उनके पूर्वभवके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें और उनरभवके प्रथम अन्तर्मुहूर्तमें वही लेश्या होती है,इस तरह छहों लेश्याओंका उक्त काल दो-दो अन्तर्मुहूर्त अधिक होता है। किन्तु तेजोलेश्या और पद्मलेश्यामें कुछ कम आधा सागर भी अधिक होता है,क्योंकि घातायुष्क सम्यग्दृष्टिके सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्गपर्यन्त अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर प्रमाण स्थिति अधिक होती है। और मिथ्यादृष्टिके पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक होती है। १. ब. भवात्पूर्वोत्तरभवयोः चरमप्रथमान्तर्मुहूर्ती षण्णां ।
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