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________________ गो० जीवकाण्डे इल्लि प्रथमवक्रदर्घ रज्जुवनू द्वितीयवक्रदरज्जुवनू कूडिदोडिदु -३ केळगण तृतीयवक्रवार रज्जुगळोकूडिदोडिदु वे ५० २१ व्या ५०० २१ इंतु संख्यातप्रतरांगुलगुणितम १.१५ प्पेळुवर रज्जुगळप्पुवु । इंत यथासंभवमागि मेले केवलिसमुद्घातददंडकवाटप्रतरलोकपूरणदोलु सर्वलोकमक्कुमिल्लि पथ्यंतम्मात्मप्रदेशविसप्पणसंहारदोळु जीवद्रव्यं व्याप्तमक्कुं। पोग्गलदव्वाणं पुण एयपदेसादि होंति भजणिज्जा। एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि ॥५८५।। ____ पुद्गलद्रव्याणां पुनरेकप्रदेशादयो भवंति भजनीयाः। एकैकस्तु प्रदेशः कालाणूनां ध्रुवं भवति ॥ पुद्गलद्रव्यंगळ्गे पुनः मत्तएकप्रदेशमादियागि द्वयणुकादिपुद्गलस्कंधंगळ्गे यथासंभवमागि १० प्रदेशंगळु विकल्पनीयंगळप्पुवु । अदेंतेंदोड द्वयणुकमेकप्रदेशदोळं मेणु द्विप्रदेशदोळमिक्कुं। त्र्यणुक मेकप्रदेशदोळं द्विप्रदेशदोळं त्रिप्रदेशदोळ मेणिक्कुमित्यादि कालाणुगळ्गे तु मत्ते ओंदको वे प्रदेशक्रमं ध्रुवं नियमदिदमक्कुं। संखेज्जासंखेज्जाणंता वा होंति पोग्गलपदेसा । लोगागासेव ठिदी एक्कपदेसो अणुस्स हवे ।।५८६।। १५ संख्येयाऽसंख्येयाऽनंता वा भवंति पुद्गलप्रदेशाः । लोकाकाश एव स्थितिः एकप्रदेशोऽणोभवेत् ॥ घणुकादिपुद्गलस्कंधंगळु संख्यातासंख्यातानंतपरमाणुगळनुळ्ळवप्पुवु। अंतादोडं लोकाकाशदोळ वक्कें स्थितियक्कुमणुविंगों के प्रदेशमक्कुं। सति जीवद्रव्यं व्यापृतं प्रवृत्तं भवति, सर्वावगाहनोपपादसमुद्घातानामस्य संभवात् ॥५८४॥ पुद्गलद्रव्याणां पुनः एकप्रदेशादयो यथासंभवं भजनीया भवन्ति । तद्यथा-द्वयणुकं एकप्रदेशे द्विप्रदेशे वा तिष्ठति । त्र्यणुकं एकप्रदेशे द्विप्रदेशे त्रिप्रदेशे वा तिष्ठतीति । तु-पुनः कालाणूनां एकैकस्य एकैकप्रदेशक्रमो ध्रुवो भवति ॥५८५॥ __ द्वयणुकादयः पुद्गलस्कन्धाः संख्यातासंख्यातानन्तपरमाणवः तथापि लोकाकाश एव तिष्ठन्ति । अणोरेक एव प्रदेशो भवेत् ।।५८६॥ २५ पर्यन्त क्षेत्र होता है। इस प्रकार अपने प्रदेशोंके संकोच-विस्तारसे जीवद्रव्यका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है,क्योंकि जीवके सब अवगाहना, उपपाद और समुद्घातके भेद होते हैं ।।५८४॥ । पुद्गल द्रव्योंका क्षेत्र एक प्रदेशसे लेकर यथायोग्य भजनीय होता है। यथा-द्वयणुक एक प्रदेश अथवा दो प्रदेशमें रहता है। ज्यणुक एक प्रदेश, दो प्रदेश अथवा तीन प्रदेशमें ३० रहता है। और कालाणु लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमें एक-एक करके ध्रुव रूपसे रहते हैं ॥५८५|| द्वथणुक आदि पुद्गल स्कन्ध संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंके समूह रूप हैं, फिर भी लोकाकाशमें ही रहते हैं । परमाणु एक ही प्रदेशी होता है ।।५८६।। १. म मागि विक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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