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________________ ८०८ गो० जीवकाण्डे कालमनायिसि जीवादिसर्वद्रव्यं स्वस्वपर्यायपरिणतमक्कं । आ पायावस्थान, ऋजुसूत्रनयदो येकसमयमेयक्कुमर्थपर्यायापेक्षेयिद । ववहारो य वियप्पो मेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो। ववहार अवठ्ठाणद्विदी हु ववहारकालो दु ॥५७२।। व्यवहारश्च विकल्पो भेदश्च तथा पर्याय इत्येकार्थः। व्यवहारावस्थानस्थितिः खलु ' व्यवहारकालस्तु॥ व्यवहारमै दोडं विकल्पमे दोडं भेदमें दडमंते पर्याय दोडमेकार्थमक्कुमल्लि व्यंजनपर्यायापेक्षेयिंद व्यवहारावस्थानस्थितिः व्यवहारमें दोडे पर्यायमेंदु पेन्दुरिंदमा पर्यायद अवस्थानदिदं वर्तमानतेयिंदमावुदोंदु स्थितियदु तु मत्त व्यवहारकालः व्यवहारकालमें बुदक्कुं। अवरा पज्जायठिदी खण मेत्तं होदि तं च समओत्ति । दोण्णमणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु ।।५७३।। अवरा पर्यायस्थितिः क्षणमात्रा भवति सैव समय इति । द्वयोरण्योरतिक्रमकालप्रमाणो भवेत्स तु॥ द्रव्यंगळ पर्यायंगळगे जघन्यस्थिति क्षणमात्रमक्कुमा स्थितिये समयमेंब संजयुळ्ळुदक्कुं। . सः आ समयमुं तु मत्ते गमनपरिणतंगळप्परडं परमाणुगळ परस्परातिक्रमकालप्रमाणमक्कुमिल्लि १५ गुपयोगियप्प गाथासूत्रमिदु : णभएयपएसत्यो परमाणू मंदगइपवट्टतो। बीयमणंतरखेत्तं जावदियं जादि तं समयकाळो॥ कालमाश्रित्य जीवादि सर्वद्रव्यं स्वस्व-पर्यायपरिणतं भवति । तत्पर्यायावस्थानं ऋजुसूत्रनयेन एकसमयो भवति अर्थपर्यायापेक्षया ॥५७१॥ व्यवहारः विकल्पः भेदः तया पर्यायः इत्येकार्थः तु पुनः तत्र व्यञ्जनपर्यायस्य अवस्थानतया स्थितिः सैव व्यवहारकालो भवति ॥५७२।। द्रव्याणां जघन्या पर्यायस्थितिः क्षणमात्रं भवति । सा च समय इत्युच्यते । स च समयः द्वयोर्गमनपरिणतपरमाण्वोः परस्परातिक्रमकालप्रमाणं स्यात् ॥५७३॥ अत्रोपयोगिगाथाद्वयं णभएयपएसत्थो परमाणू मन्दगइपवर्सेतो। बीयमणंतरखेत्तं जावदियं जादि तं समयकालो ॥१॥ कालका आश्रय पाकर जीव आदि सब द्रव्य अपनी-अपनी पर्याय रूपसे परिणमन करते हैं। उस पर्यायके ठहरनेका काल ऋजू सूत्रनयसे अर्थपर्यायकी अपेक्षा एक समय होता है ।। ५७१ ।। व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय ये सब एक अर्थवाले हैं। अर्थात् इन शब्दोंका ३० अर्थ एक है। उनमें-से व्यंजन पर्यायकी वर्तमान रूपसे स्थिति व्यवहार काल है ॥५७२॥ द्रव्योंकी पर्यायकी जघन्य स्थिति क्षण मात्र होती है, उसको समय कहते हैं। गमन करते हुए दो परमाणुओंके परस्परमें अतिक्रमण करने में जितना काल लगता है, उतना ही समयका प्रमाण है ।। ५७३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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