SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५०७ मादोडं ज्ञानोत्पत्तिप्रतिघातित्वाऽभावददमविवक्षेयरियल्पडुवुदु । केवलज्ञानं क्षायिकमेयक्कुमेक 'दोडे केवलज्ञानावरणवीर्यांतराय निरवशेषक्षयप्रादुर्भूतर्त्वादिदं क्षये भवं क्षयः प्रयोजनमस्येति वा क्षायिकं । येत्तलानुमात्मंग केवलज्ञानं प्रतिबंधकावस्थेयोळु शक्तिरूपदिदं मिदं तिर्दोडं प्रतिबंधकक्षर्याददमे तद्वक्तिक्कुमेदितु व्यक्त्यपेक्षयिदं कार्यत्वसंभवददं क्षायिकमे दितु पेळपट्टुडु । आवरणक्षयमुंटागुत्तिरलु प्रादुर्भवति ये बी निरुक्तिगे तद्व्यक्त्यपेक्षत्वमुळ्ळुदरिदं । अनंतरं मिथ्याज्ञानोत्पत्तिकारणस्वरूपस्वामिभेदंगळं पेळदपं : अण्णाणतियं होदि हु सण्णाणतियं खु मिच्छ अणउदए । वरि विभंगं णाणं पंचिदियसणिपुण्णेव ॥ ३०१ ॥ अज्ञानत्रयं भवति खलु सज्ज्ञानत्रयं खलु मिथ्यात्वानंतानुबंध्युदये । विशेषो विभंगं ज्ञानं पंचेंद्रियसंनिपूर्ण एव ॥ आवुदोंदु मति तावधिगळु सम्यग्दर्शनपरिणतजीव संबंधि सम्यग्ज्ञानत्रयं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्त जीवन विशेषग्रहण रूपाकारसहितोपयोगलक्षणमप्प तत् सम्यग्ज्ञानमे मिथ्यादर्शनानंतानुबंधिकषायान्यतमोदय मागुत्तिरलऽतत्वार्थ श्रद्धान परिणतजीवसंबंधिमिथ्याज्ञानत्रयं खलु स्फुटमक्कुं । raft विशेष आवदों दवधिज्ञानविपर्य्यायरूपमप्प विभंगमे व पेसरतुळ मिथ्याज्ञानमदु ज्ञानोत्पत्तिप्रतिघातित्वाभावात् अविवक्षा ज्ञातव्या । केवलज्ञानं पुनः क्षायिकमेव भवति केवलज्ञानावरणवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयेण प्रादुर्भूतत्वात् । क्षये भवं, क्षयः प्रयोजनमस्येति वा क्षायिकम् । यद्यप्यात्मनः केवलज्ञानं प्रतिबन्धकावस्थायां शक्तिरूपेण विद्यमानं, तथापि प्रतिबन्धकक्षयेणैव तद्व्यक्तिः स्यात् इति व्यक्त्यपेक्षया कार्यत्वसंभवात् क्षायिकमित्युक्तं । आवरणक्षये सति प्रादुर्भवति इति निरुक्तः तद्व्यक्त्यपेक्षत्वात् ॥ ३००॥ अथ मिथ्याज्ञानोत्पत्तिकारणस्वरूपस्वामिभेदानाह - यत्सम्यग्दर्शनपरिणतजीवसंबन्धिमतिश्रुतावधिसंज्ञं सम्यग्ज्ञानत्रयं संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तजीवस्य विशेषग्रहणरूपाकारसहितोपयोगलक्षणं तदेव मिथ्यादर्शनानन्तानुबन्धिकषायान्यतमोदये सति अतत्त्वार्थश्रद्धानपरिणतजीवसम्बन्धिमिथ्याज्ञानत्रयं खलु - स्फुटं भवति । नवरीति विशेषोऽस्ति यदवधिज्ञानविपर्ययरूपं विभङ्गनामकं अब मिथ्याज्ञानकी उत्पत्ति के कारण, स्वरूप और स्वामीभेदोंको कहते हैं जो सम्यग्दृष्टि जीवके मति, श्रुत और अवधि नामक तीन सम्यग्ज्ञान हैं, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके विशेष ग्रहणरूप आकार सहित उपयोग जिनका लक्षण है, वे ही तीनों मिथ्यादर्शन और (मिथ्यात्व विषयक) अनन्तानुबन्धी कषायमें से किसी एक कषायका उदय होनेपर अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणत मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्याज्ञान होते हैं । किन्तु इतना विशेष है Jain Education International १० २५ हैं। जो क्षयोपशम से होते हैं अथवा क्षयोपशम जिनका प्रयोजन हैं, वे क्षायोपशमिक हैं । क्षायोपशमिक ज्ञानों में यद्यपि उस उस आवरण सम्बन्धी देशघाती स्पर्धकोंका उदय विद्यमान रहता है, तथापि वे ज्ञानकी उत्पत्तिके प्रतिघाती नहीं हैं, इसलिए यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है । किन्तु केवलज्ञान क्षायिक ही होता है, क्योंकि वह केवल ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायके सम्पूर्ण क्षयसे प्रकट होता है । जो क्षयसे होता है या क्षय जिसका प्रयोजन है, वह क्षायिक है । यद्यपि आत्मामें केवलज्ञान प्रतिबन्धक अवस्थामें शक्तिरूपसे विद्यमान है, तथापि प्रतिबन्धकके क्षयसे हो वह प्रकट होता है, इसलिए व्यक्तिकी अपेक्षा कार्य होनेसे उसे क्षायिक कहा है । आवरणका क्षय होनेपर प्रकट होता है, ऐसी निरुक्ति होनेसे उसकी व्यक्तिकी ३० अपेक्षा है ||३००|| For Private & Personal Use Only १५ २० ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy