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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
कर्मोदयजनितनारका पर्य्यायंगळे गतिगळप्पुदरिदं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ पर्याप्तापर्याप्त नारकरूं पर्य्याप्तापर्य्याप्त तिरियंचरुं पय्र्याप्तापर्य्याप्तमनुष्यरुं पय्र्याप्तापर्य्याप्तिदेव वर्कऴुमितु नाकु गतिजीवरुमप्परु । सासादनगुणस्थानदोळु पर्याप्तनारकरु पर्याप्तापर्य्याप्ततिय्र्य्यचरु पर्याप्तापर्याप्तमनुष्यरु पर्याप्तापर्य्याप्तदेव कंळुमप्पर । मिश्रगुणस्थानदोळ पर्य्याप्तनारकरु पर्याप्ततिय्यंचरु पर्याप्तमनुष्यरु पर्याप्तदेवर्कद्रुमप्परु | असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळ घर्मेय पर्याप्तापय्र्याप्तनारक रुळिद षड्भूमिगल पर्य्याप्तनारकरु भोगभूमिजपर्य्याप्ताऽपर्याप्ततिय्यंचरु कर्मभूमि पर्याप्ततिर्य्यचरुं भोगभूमिजपर्याप्तापय्र्याप्तमनुष्यरुं कर्म्मभूमिजपर्याप्तापर्याप्तमनुष्य भवनत्रय वज्जितपय्र्याप्ताऽपर्याप्त देववर्कद्धुं भवनत्रयपर्य्याप्तिदेवकर्कलं संभविसुवरु । देश संयत गुणस्थानदो पर्याप्तकर्मभूमिजतिय्यंचरुं मनुष्यरुं संभविसुवरु । प्रमत्तगुणस्थानदोळ पर्य्याप्तमनुष्यरुमाहारकऋद्धिप्राप्तप्रमत्तापेक्षयिदमाहारकशरीरपर्याप्तापर्याप्त मनुष्य रुमोळरु ।
अप्रमत्तगुणस्थानं मोदगोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपय्र्यंतमारु गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं पर्याप्तमनुष्यनेयवकुं । सयोग के वलिगुणस्थानदोळ पर्याप्त मनुष्य रेयप्परु । समुद्घातकेवल्यपेक्षयदं औदारिकमिश्रकाययोगिगळं कार्म्मणकाययोगिगळप्प अपर्याप्तमनुष्यरुमप्परु । अयोगिकेवलि गुणस्थानदो पर्याप्त मनुष्यरेयपरु ।
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । ४ । ४ । ४ । ४ । २ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ ।
नरकादिगतिनामोदय जनिता नारकादिपर्यायाः गतयः । तेन मिथ्यादृष्टौ नारकादयः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । १५ सासादने नारकाः पर्याप्ताः शेषाः उभये । मिश्रे सर्वे पर्याप्ता एव । असंयते घर्मानारकाः उभये, शेषनारकाः पर्याप्त एव । भोगभूमितिर्यग्मनुष्याः कर्मभूमिमनुष्याः वैमानिकाश्च उभये । कर्मभूमितिर्यञ्चो भवनत्रयदेवाश्च पर्याप्ता एव । देशसंयते कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याः पर्याप्ताः । प्रमत्ते मनुष्याः पर्याप्ताः, साहारकर्द्धयस्तु उभये । अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ताः पर्याप्ताः । संयोगिनि उभये । अयोगिनि पर्याप्ता एव ।
१. ब सयोगिन उ । २. ब अयोगिन ।
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नरक आदि गतिनाम कर्म के उदयसे उत्पन्न हुई नरकादि पर्यायोंको गति कहते हैं । २० इससे मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें नारक आदि पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । सासादन में नारकी पर्याप्त ही होते हैं, शेष तिर्यंच आदि पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं । मिश्रगुणस्थान में सब पर्याप्त ही होते हैं। असंयत गुणस्थान में प्रथम नरकके नारकी पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं। शेष नारकी पर्याप्त ही होते हैं । भोगभूमिके तियंच, मनुष्य, कर्मभूमि के मनुष्य और वैमानिक पर्याप्तक- अपर्याप्तक दोनों होते हैं। कर्मभूमिके तिर्यंच और भवनत्रिकके देव २५ पर्याप्त ही होते हैं । देशसंयत में कर्मभूमिके तियंच और मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। प्रमत्त गुणस्थान में मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। आहारक ऋद्धिवाले पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं । अप्रमत्तसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त होते हैं । सयोगीमें दोनों होते हैं। अयोगी में पर्याप्त ही होते हैं ।
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