SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२६ गो० जीवकाण्डे नप्रमाणं जघन्यदेशावधिक्षेत्रमदु कारणदिवं व्यवहारांगुलमनायिसिये पेळल्पटुटुं। तज्जधन्यावगाहनमुं परमागमदोळु वेहगेहप्रामनगरादिप्रमाणमुत्सेधांगुलविंदमे येदितु नियमितमप्पुरिवं व्यवहारांगुलाश्रितमे यक्कुं। मेले यावुदो डयोळंगुलमावळिया एकभागमसंखेज्जमित्यादिगाथा सूत्रोक्तकांडकंगळोळु अंगुलग्रहणमल्लि प्रमाणांगुलमे ग्राह्यमक्कुमुत्तरोत्तर निद्दिश्यमानहस्तगव्यूति५ योजनभरतादिक्षेत्रंगळगे प्रमाणांगुलाश्रितत्वदिद। अवरोहिखेत्तमज्झे अवरोही अवरदव्वमवगमइ । तद्दव्वस्सवगाहो उस्सेहासंखघणपदरो ॥३८२।। अवरावधिक्षेत्रमध्ये अवरावधिरवरद्रव्यमवगच्छति । तद्रव्यस्यावगाहः उत्सेधासंख्यघनप्रतरः। जघन्यावधिक्षेत्रमध्यदोलिरुतिई पूर्वोक्तजघन्यद्रव्यमं जघन्यदेशावधिज्ञानमरिगं। तत् क्षेत्रमध्यदोलिरुतिई असंख्यातंगळनौवारिकशरीरसंचयलोकभक्तकभागप्रमितखंडंगळननितुमनरिगुमें बुदत्यं । तज्जघन्यपुद्गलस्कंधद मेले एकद्वयादिप्रदेशोत्तरपुद्गलस्कंधंगळनरिगुमेंबुदनिल्लि पेळल्वेडेके दोडे सूक्ष्मविषयज्ञानक्के स्थूलावबोधनदोळु सुघटत्वमप्पुरिदं। द्रव्यावगाहक्षेत्रं जघन्या वधिविषयक्षेत्रमं नोडलसंख्येयगुणहीनमक्कुमादोडं उत्सेघधनांगुलासंख्यातभागमात्रमक्कुं। मदर १५ सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनप्रमाणं जघन्यदेशावधिक्षेत्रं ततः कारणात्, देहगेहग्रामनगरादिप्रमाणं उत्सेधाङ्गलेनैवेति परमागमे नियमितत्वात् व्यवहाराङ्गलमेवाश्रितं भवति । उपरि यत्र “अङ्गलमावलियाए भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जो, इत्यादिगाथासूत्रोक्तकाण्डकेषु अङ्गलग्रहणं तत्र प्रमाणाङ्गुलमेव ग्राह्यं, उत्तरोत्तरनिदिश्यमानहस्तगव्य तियोजनभरतादिक्षेत्राणां प्रमाणागलाश्रितत्वात ॥३८१॥ जघन्यावधिक्षेत्रमध्ये स्थितं पूर्वोक्तं जघन्यद्रव्यं जघन्यदेशावधिज्ञानं जानाति तत्क्षेत्रमध्यस्थितानि औदारिकशरीरसंचयस्य लोकविभक्तकभागप्रमितखण्डानि असंख्यातानि जानातीत्यर्थः । तज्जघन्यपुद्गलस्कन्धस्योपरि एकद्वयादिप्रदेशोत्तरपुद्गलस्कन्धान् न जानातीति न वाच्यं, सूक्ष्मविषयज्ञानस्य स्थूलावबोधने सुघटत्वात् । द्रव्यावगाहक्षेत्रं तु जघन्यावधिविषयक्षेत्रादसंख्यातगुणहीनं भवति, तथाप्युत्सेधघनाङ्गुलासंख्यातया आत्मांगुलकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना प्रमाण जघन्य देशावधिका क्षेत्र है। और परमागममें यह नियम कहा है कि शरीर, घर, २५ प्राम, नगर आदिका प्रमाण उत्सेधांगुलसे ही मापा जाता है। इसलिये व्यवहार अंगुलका ही आश्रय लिया है। आगे 'अंगुलमावलियाए' आदि गाथासूत्रोंमें कहे गये काण्डकोंमें अंगुलका प्रमाण प्रमाणांगुलसे लिया है । उससे आगे भी जो हस्त, गन्यूति, योजन भरत आदि प्रमाण क्षेत्र कहा है,वह सब प्रमाणांगुलसे ही लिया है।॥३८॥ जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रके मध्यमें स्थित पूर्वोक्त जघन्य द्रव्यको जघन्य देशावधिज्ञान जानता है । अर्थात् उस क्षेत्रके मध्यमें औदारिक शरीरके संचयको लोकसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण जो असंख्यात खण्ड स्थित हैं, उनको जानता है। उस जघन्य पुद्गल स्कन्धसे ऊपर एक-दो आदि अधिक प्रदेशवाले स्कन्धोंको वह नहीं जानता, ऐसा नहीं है। क्योंकि जो ज्ञान सूक्ष्मको जानता है, वह स्थूलको जानने में समर्थ होता है। द्रव्यकी अवगाहनाका प्रमाण जघन्य अवधिके विषयभूत क्षेत्रके प्रमाणसे असंख्यात गुणाहीन ३५ १. ब, तन्यसंख्याखण्डानि जा। २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy