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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९१५ सम्यक्त्वमार्गयोळु मिथ्यादृष्टियु सासादन मिश्रनुं तंतम्म गुणस्थानदोळेयक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टियोळु पदिनाल्कु जीवसमासेगळप्पवु। सासादनोळु येकेंद्रियबादरापर्याप्त द्विद्रियापर्याप्त त्रींद्रियापर्याप्तचतुरिंदियापर्याप्त संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ता संजिपंचेंद्रियापर्याप्तजीवसमासेगळेळप्पुवु । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकनप्प सासादननुनुमोळने बाचार्यापेक्षयिदं संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेयुं देवापर्याप्तजीवसमासयुमरडप्पुवु । मिश्रनोळु संजिपंचेंद्रिय- ५ पर्याप्तजीवसमासयों देयक्कु । प्रथमोपशमसम्यक्त्वमु वेदकसम्यक्त्वमुमरांयतसम्यग्दृष्टियागियागऽप्रमत्तपय्यंतं नाल्कु नाल्कु गुणस्थानंगळोळप्पुवु । अल्लि प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळु मरणमिल्लप्पुरदं संजिपर्याप्तपंचेंद्रियजीवसमासेयो देयक्कु । वेदकसम्यक्त्वदोळु संजिपंचेंद्रिय पर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळेरडप्पुवेदोडे धर्मेय नारकापर्याप्तनुं भवनत्रयज्जितदेवापर्याप्तनुं भोगभूमिजमनुष्यतिय्यंचापर्याप्तनुं वेदकसम्यग्दृष्टियोळनप्पुरदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वक्के पेन्दपं । बिदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहो त्ति । खइगं सम्मं च तहा सिद्धोत्ति जिणेहि णिदिहूँ॥६९६॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरतसम्यग्दृष्टयाद्युपशांतमोहगुणस्थानपर्यंतं क्षायिकसम्यक्त्वं च .. तथा सिद्धपय्यंत जिनैर्निर्दिष्टं। सम्यक्त्वमार्गणायां मिथ्यादृष्टिः सासादनः मिश्रश्च स्वस्वगुणस्थाने एव भवति । तत्र मिथ्यादृष्टौ जीवसमासाश्चतुर्दश । सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंश्यसंश्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ताः सप्त । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्तावपि द्वौ। मिश्रे संज्ञिपर्याप्तः। प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वे द्वे असंयताद्यप्रमत्तान्तं स्तः । तत्र जीवसमासः प्रथमोपशमसम्यक्त्वे मरणाभावात् संज्ञिपर्याप्त एवंकः । वेदकसम्यक्त्वे संक्षिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ । धर्मानारकस्य भवनत्रयवजितदेवस्य भोगभूमिनरतिरश्चोश्च अपर्याप्तत्वेऽपि २० तत्संभवात् ॥६९५॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वस्याह ___ सम्यक्त्वमागणामें मिथ्यादृष्टि, सासादन, और मिश्र अपने-अपने गुणस्थानमें होते हैं। मिथ्यादृष्टि में जीवसमास चौदह होते हैं। सासादनमें बादर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीअपर्याप्त तथा संज्ञी पर्याप्तअपर्याप्त ये सात जीवसमास होते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके सासादनको प्राप्त होनेके पक्षमें संज्ञीपर्याप्त और २५ देवअपर्याप्त दो जीवसमास होते हैं। मिश्रगुणस्थानमें संज्ञी पर्याप्त जीवसमास होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व और वेदकसम्यक्त्व असंयतसे अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मरणका अभाव होनेसे जीवसमास एक संज्ञीपयोप्त ही है। वेदक सम्यक्त्वमें संज्ञीपर्याप्त, अपर्याप्त दो होते हैं। क्योंकि धर्मा नामक प्रथम नरकमें भवनत्रिकको छोड़कर देवोंमें और भोगभूमिया मनुष्य तथा तिर्यचोंमें अपर्याप्त दशामें भी वेदक सम्यक्त्व ३० होता है ॥६९५॥ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको कहते हैं१. मु. साविति द्वौ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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