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________________ १० ७२४ गो० जीवकाण्डे चतस्रोऽसंज्ञिनः असंज्ञिपंचेंद्रियपर्यापजीवंगे कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमु तेजोलेश्ययुमक्कुमेकेदाडा असंज्ञिजीवं कपोतलेश्यायदं मृतनागि धर्म योळपुटुगुं। तेजोलेोयदं मृतनागि भवनव्यंतरदेवगतिद्वयदोळपुटुगुमशुभलेश्यात्रयदिदं मृतनागि नरतिर्यग्गतिद्वयदोळ्पुटुवनप्पुदरिदं । संज्यपूर्णमिथ्यादृष्टौ संजिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकनोळं मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकनोळं अपि शब्ददिदमसंज्ञिपंचेद्रियलब्ध्यपर्याप्तकनोळं सासादनसम्यग्दृष्टौ निवृत्त्यपर्याप्तकसासादननोलमासासादननु । [णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदित्ति य ण तस्स णिरयाणू । एंदु, - "णहि सासादणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे॥" एंदितु ] लब्ध्यपर्याप्तकरोळं साधारणजीवंगळोळं नारकरोळं सूक्ष्मजीवंगळोळ तेजस्कायिकंगळोळं वातकायिकंगळोळ संभविसनप्पुरिदं भवनत्रयापर्याप्तकरोळ शेषतिर्यग्मनुष्यरोळ संभविसुगुमा निर्वृत्यपर्याप्तकसासादननोळं अशुभत्रयो कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमेयकुं । तिर्यग्मनुष्योपशमसम्यग्दृष्टिगळु तत्कालाभ्यंतरदोळु सुष्ठु संक्लिष्टरादोडमवर्गळगे देशसंयतरोळे तंते कृष्णनीलकपोतलेश्यात्रयंगळागवेदितु तद्विराधकसासादननोळु पर्याप्तविषयदोळशुभलेश्यात्रयमेयक्कुमें दरिवुदु। भोगापुण्णगसम्मे काउस्स जहणियं हवे णियमा। सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिण्णि सुहलेस्सा ॥५३१॥ भोगापूर्णसम्यग्दृष्टौ कापोतस्य जघन्यं भवेन्नियमात् । सम्यग्दृष्टौ वा मिथ्यादृष्टौ वा पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः॥ द्यशुभलेश्या एव । असंज्ञिपर्याप्तस्य तत्त्रयं तेजोलेश्या च, कुतः ? तस्य कपोतमृतस्य धर्मायां तेजोमृतस्य भवनव्यन्तरयोरशुभत्रयमृतस्य संज्ञिनरतिर्यग्गत्योश्च उत्पादात् । संज्ञिलब्ध्यपर्याप्तकतिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टी अपिशब्दादसंज्ञिलब्ध्यपर्याप्तके तिर्यग्मनुष्यभवनत्रयनिर्वृत्त्यपर्याप्तकसासादने च कृष्णाद्यशुभत्रयमेव । तिर्यग्मनुष्योपशमसम्यग्दृष्टोनां सम्यक्त्वकालाभ्यन्तरे सुष्ठु संक्लेशेऽपि देशसंयतवत् तत्त्रयं नास्ति तथापि तद्विराधकसासादनापर्याप्तानामस्तीति ज्ञातव्यम् ॥५३०॥ उनमें से एकेन्द्रिय और विकलत्रय जीवोंमें कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके कृष्णादि तीन और तेजोलेश्या होती है। क्योंकि यदिवह कापोतलेश्यासे मरता है, तो घर्मा नरकमें उत्पन्न होता है । तेजोलेश्यासे मरता है, तो भवनवासी और व्यन्तरोंमें उत्पन्न होता है। और यदि तीन अशुभ लेश्याओंसे मरता है,तो मनुष्यगति, तिर्यच गतिमें उत्पन्न होता है। संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक तियंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि में 'अपि' शब्दसे असंज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचमें तथा सासादन गुणस्थानवर्ती निवृत्यपर्याप्त तिथंच, मनुष्य और भवनत्रिकमें कृष्णादि तीन अशुभलेश्या ही होती हैं । उपशम सम्यग्दृष्टि तिथंच और मनुष्योंके सम्यक्त्वकालके भीतर अतिसंक्लेशमें भी देशसंयतकी तरह तीन अशुभ लेश्या नहीं ३० होती है। तथापि उपशम सम्यक्त्वके विराधक सासादन सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त अवस्था में अशुभ लेश्या होती है ।।५३०॥ १. म प्रतौ कोष्ठान्तर्गतपाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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