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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७२३ भवनत्रयं मोदलागि सर्वांत्य सिद्धिजखसानमाद सुररु घम्में मोदलागि अवधिस्थानावसानमाद नारकरुं स्वस्वलेश्यानुगमप्प नरत्वमुमं तिर्यक्त्वमुमं यांति येय्दुवरु । एलनेय गत्यधिकारं तिर्नु । अनंतरं स्वाम्याधिकारमं गाथासप्तदिदं पेन्द
काऊ काऊ काऊ णीला णीला य णीलकिण्हा य ।
किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीणं ॥५२९।। कापोती कापोती तथा कापोती नीले नीला च नीलकृष्णे च । कृष्णा च परमकृष्णा लेश्याः प्रथमादिपृथ्वीनां ॥
घादिसप्तपृथ्विगळ नारकर, यथासंख्यमागि घमेय नारक कपोतलेश्याजघन्यमक्कुं। वंशयनारकणे कपोतलेश्यामध्यमांशमक्कुं। मेघेय नारकर कपोतलेश्योत्कृष्टमुं नीललेश्याजघन्यांशमुमक्कु । अंजनेय नारकग्नं नीललेश्यामध्यमांशमक्कु। अरिष्टय नारकर्गे नीललेश्योत्कृष्टमु कृष्णलेश्याजघन्यांशमुमक्कु। मघविय नारकर्ग कृष्णलेश्यामध्यांशमक्कु। माघविय नारकर्ने । कृष्णलेश्योत्कृष्टांशमुमक्कु।
णरतिरियाणं ओघो इगिविगले तिण्णि चउ असण्णिस्स ।
सण्णि-अपूण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि असहतियं ॥५३०॥ नरतिरश्चामोघ एकविकले तिस्रः चतस्रोऽसंज्ञिनः संज्यपूर्णमिथ्यादृष्टौ सासादनसम्यग्दृष्टा- ... वप्यशुभत्रयो॥
नरतिरश्चामोघः नरतिय्यंचरुगळ्गे प्रत्येकं सामान्योक्त षड्लेश्यगळप्पुववरोळु तिय्यंचरोळु एकविकलेषु एकेंद्रियजीवंगळ्गं विकलत्रयजीवंगळ्गं तिस्रः कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमेयक्कु। उत्पद्यन्ते । भवनत्रयादि सर्वार्थसिद्धयन्तसुराः धर्माद्यवधिस्थानान्तनारकाश्च स्वस्वलेश्यानुगं नरतिर्यक्त्वं यान्ति ॥५२८॥ इति गत्यधिकारः ॥ अथ स्वाम्यधिकारं गाथासप्तकेनाह
प्रथमादिपृथ्वीनारकाणां च लेश्योच्यते-तत्र धर्मीयां कापोतजघन्यांशः । वंशायां कापोतमध्यमांशः । मेघायां कापोतोत्कृष्टांशनीलजघन्यांशी। अंजनायां नीलमध्यमांशः । अरिष्टायां नीलोत्कृष्टांशकृष्णजधन्यांशो । मघव्यां कृष्णमध्यमांशः । माघव्यां कृष्णोत्कृष्टांशः ॥५२९।।
नरतिरश्चां प्रत्येकं ओघः सामान्योत्कृष्टषट्लेश्याः स्युः । तत्र एकेन्द्रियविकलत्रयजीवेषु तिस्रः कृष्णाकायिक, वायुकायिक, विकलत्रय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और साधारण वनस्पति जीवोंमें उत्पन्न होते हैं। भवनत्रिकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त देव और धर्मा पृथिवीसे लेकर सातवीं ' पृथ्वी तकके नारकी अपनी-अपनी लेश्याके अनुसार मनुष्य और तियच होते हैं ॥५२८।।
गतिअधिकार समाप्त हुआ। आगे सात गाथाओंसे स्वामी अधिकार कहते हैं
प्रथम पृथ्वी आदिके नारकियोंको लेश्या कहते हैं-धर्मामें कपोतलेश्याका जघन्य अंश है । वंशामें कपोतका मध्यम अंश है। मेघामें कपोतका उत्कृष्ट अंश और नीलका जघन्य ३० अंश है। अंजनामें नीलका मध्यम अंश है। अरिष्टामें नीलका उत्कृष्ट अंश और कृष्णका जघन्य अंश है । मघवीमें कृष्णका मध्यम अंश है। माधवीमें कृष्णका उत्कृष्ट अंश है ।।५२९॥
मनुष्यों और तियचोंमें-से प्रत्येकमें 'ओघ' अर्थात् सामान्यसे छहों लेश्या होती हैं।
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