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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६६३ स्वविषयक्षेत्रदोळु ओंदु प्रदेशमं तेगदोम्म ध्रुवहारदिदं भागिसुवुदु । स्वस्वावधिविषयक्षेत्रप्रदेशप्रमाणं परिसमाप्तियक्कुमन्नेवरमन्नेवरं ध्रुवहारदिदं द्रव्यम भागिसुवुदंतु भागिसुत्तिरलु तत्रतन चरमखंडं तत्रतनावधिज्ञानविषयद्रव्यप्रमाणमक्कुं। स्वस्वावधिविषक्षेत्रप्रदेशप्रचयप्रमित ध्रुवहारंगळिदं स्वस्वावधिज्ञानावरणद्रव्यमं विस्नसोपचयमं भागिसुत्तिरलु स्वस्वावधिज्ञानविषयद्रव्यमक्कुमें बुदु तात्पत्थिं । सोहम्मीसाणाणमसंखेज्जा ओ हु वस्सकोडीओ। उवरिमकप्पचउक्के पल्लासंखेज्जभागो दु ॥४३५।। सौधम्मैशानानां असंख्येयाः खलु वर्षकोट्यः । उपरितनकल्पचतुष्के पल्यासंख्यातभागस्तु । तत्तो लांतवकप्पप्पहुडी सव्वट्ठसिद्धिपेरंतं । किंचूण पल्लमत्तं कालपमाणं जहाजोग्गं ॥४३६।। ततो लांतवकल्पप्रभृति सर्वार्थसिद्धिपय्यंतं । किंचिदूनपल्यमानं कालप्रमाणं यथायोग्यं । सौधम्मैशानकल्पजग्गवधिज्ञानविषयकालमसंख्यात वर्षकोटिगळप्पुवु । वर्ष को ।। खलु स्फुटमागि। तु मत्त उपरितनकल्पचतुष्के सनत्कुमार-माहेंद्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-कल्पचतुष्टयवासिदेवक्र्कळगे कालं यथायोग्यमप्पपल्यासंख्यातभागमात्रमक्कु प मेग लांतवकल्पं मोदल्गोंडु सर्वार्थसिद्धिपय्यंतं कल्पजग्गं कल्पातीतजग्गं कालं यथायोग्यमप्प किंचिदूनपल्यप्रमाणमक्कुं। क्षेत्रे एकप्रदेशमपनीय द्रव्यमेकवारं ध्र वहारेण भजेत् यावत्स्वस्वावधिक्षेत्रप्रदेशप्रमाणं परिसमाप्यते तावत । तत्रतनचरमखण्डं तत्रतनावधिज्ञानविषयद्रव्यप्रमाणं भवति । स्वस्वावधिविषयक्षेत्रप्रदेशप्रचयप्रमितध्र वहारभक्तं विविस्रसोपचयस्वस्वावधिज्ञानावरणद्रव्यं स्वस्वावधिविषयद्रव्यं स्थादित्यर्थः ॥४३३-४३४॥ सौधर्मशानजानामवधिविषयकालः असंख्यातवर्षकोट्यः खलु वर्षको ३ । तु-पुनः, उपरितनकल्यचतुष्क और प्रदेशोंमें एक कम कर दें। इस तरह तबतक भाग दे, जबतक सब प्रदेश समाप्त हों। २० अन्तिम भाग देनेपर जो सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध शेष रहे, उतने प्रमाण पुद्गलस्कन्धको सौधर्म ऐशान स्वर्गका देव जानता है। इसी प्रकार सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके के घनरूप चार राजू प्रमाण क्षेत्रके प्रदेशोंका जितना प्रमाण है, उतनी बार उनके अवधिज्ञानावरण द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देते-देते जो प्रमाण रहे, उतने परमाणुओंके स्कन्धको उनका अवधिज्ञान जानता है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्गके देवोंके साढ़े पाँच राजू, लान्तव-कापिष्ठवालोंके छह २५ राजू, शुक्र-महाशुक्रवालों के साढ़े सात राजू, शतार-सहस्रारवालोंके आठ राजू, आनतप्राणतवालोंके साढ़े नौ राजू , आरण-अच्युतवालोंके दस राजू, प्रैवेयकवालोंके ग्यारह राजू, अनुदिशवालोंके कुछ अधिक तेरह राजू, अनुत्तर दिमानवालोंके कुछ कम चौदह राजू क्षेत्रका परिमाण जानकर पूर्वोक्त विधान करनेपर उन देवोंके अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यका परिमाण होता है। अर्थात् सबके अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रके प्रदेशोंका जो प्रमाण हो, ३० उतनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देते-देते जो प्रमाण रहे, उतने परमाणुओंके स्कन्धको वे-वे देव अवधिज्ञान द्वारा जानते है ॥४३३-४३४॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके अवधिज्ञानका विषयभूत काल असंख्यात वर्ष कोटि है। उनसे ऊपर चार कल्पोंमें अर्थात् सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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