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________________ गो० जीवकाण्डे कप्पसुराणं सगसग ओहीखेत्तं विविस्ससोवचयं । ओहीदव्वपमाणं संठाविय धुवहारेण हरे ॥४३३।। सगसगखेत्तपदेससलायपमाणं समप्पदे जाव । तत्थतणचरिमखंडं तत्थतणोहिस्स दव्वं तु ॥४३४।। कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्रं विवित्रसोपचय-मवधिद्रव्यप्रमाणं संस्थाप्य ध्रुवहारेण हरेत् ॥ स्वस्वक्षेत्रप्रदेशशलाकाप्रमाणं समाप्यते यावत् । तत्रतनचरमखंडं तत्रतनावधेर्द्रव्यं तु। - कल्पजरप्प देवर्कळ स्वस्वावधिक्षेत्रमुमं विगतविस्रसोपचयावधिज्ञानावरणद्रव्यमुमं स्थापिसि क्षेत्र३४क्षेत्र ११ =६ :१५ १८ =१९ =१० ११ १३ = १४३४३३२ ३४३॥ ३४३७ ३४३ ३४३३२३४३३ ३४३३२३४३ ३४३ ३४३ ३४३ स०१२ स१-२स०१-२ स०१-२स.१-२स.१-२स.१-२ स०१-२स.१-२ स०१-२सa१-२ ७४ ७४ | ७१४ । ७४ । ७४ | ७४ ७४ ७४ ७४ ७४ ७४ द्रव्य । द्रव्य २० अमुमेवार्थं विशदयति कल्पवासिनां स्वस्वावधिक्षेत्र विगतविस्रसोपचयावधिज्ञानावरणद्रव्यं च संस्थाप्य =३ | ४ |=११] ६ | १५ | D८ 12१९/=१०| ११| १३|| =१४३४३३२ ३४३।। ३४३।२ ३४३। ३४३।२] ३४३३४३।२/ ३४३ | ३४३।। ३४३ | ३४३ स०१२- स०१२- सव१ससa१२-1 स.१२स१२-सa१२-सa१२-स१२-1 सa१२-| सa१२७४ | ७४ ७४ | ७।४ । ७४ ७४/७।४ । ७।४ | ७४ | ७४ । ७।४ इसी बातको आगे स्पष्ट करते हैं कल्पवासी देवोंके अपने-अपने अवधिज्ञानके क्षेत्रको और अपने-अपने विस्रसोपचयरहित अवधिज्ञानावरण द्रव्यको स्थापित करके क्षेत्रमें से एक प्रदेश कम करना और द्रव्यमें १५ एक बार ध्रुवहारका भाग देना। ऐसा तबतक करना चाहिए, जबतक अपने-अपने अवधि ज्ञानके क्षेत्र सम्बन्धी प्रदेशोंका परिमाण समाप्त हो। ऐसा करनेसे जो अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यका अन्तिम खण्ड शेष रहता है, उतना ही उस अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यका परिमाण होता है। विशेषार्थ-जैसे सौधर्म-ऐशान स्वर्गवालोंका क्षेत्र प्रथम नरक पृथ्वीपर्यन्त कहा है। २० सो पहले नरकसे पहला दूसरा स्वर्ग डेढ़ राजू ऊँचा है। अतः अवधिज्ञानका क्षेत्र उनका एक राजू लम्बा-चौड़ा और डेढ़ राजू ऊँचा हुआ। इस घनरूप डेढ़ राजू क्षेत्रके जितने प्रदेश हों, उन्हें एक जगह स्थापित करें। और जिस देवका जानना हो, उस देवके अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यको एक जगह स्थापित करें। इसमें विस्रसोपचयके परमाणु नहीं मिलाना । इस अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यके परमाणुओंमें एक बार ध्रुवहारका भाग दें और २५ प्रदेशों में से एक कम कर दें। भाग देनेसे जो प्रमाण आया, उसमें दुबारा ध्रुवहारका भाग दे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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