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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६६१ सर्वलोकनाडियं नवानुद्दिशपंचानुत्तरविमानवासिगळप्पहमिंद्ररु काण्बरु अदेते दोडे सौधर्माविसमस्तदेवर्कळु भेग स्वस्वस्वर्गविमानध्वजदंडशिखरपथ्यंत काण्बरु । नवानुदिशविमानवासिगळप्पहमिंदरं पंचानुत्तरविमानवासिगळप्पहमिद्ररुं मेले तं तम्म विमानशिखरं मोदल्गोंडु केळगेल्लिबरं बहितिवलयमल्लिवरं पंचविंशत्युत्तरचतुःशतधनूरहितैकविंशतियोजनरहितमप्पुदरिदं किंचिदून चतुर्दशरज्वायतरज्जुविस्तारसर्वलोकनाडियनाउदोंदु अवधिदर्शनदिदं काण्बरु। ५ तवधिदर्शनदिदं यथासंख्यमागि साधिकत्रयोदशरज्जुगळ्मं किंचिदूनचतुर्दशरज्जुगळं काण्बरेंबुदत्य । इदुर्बु क्षेत्रपरिमाणनियामकमल्तु । तत्र तत्रतननियामकमक्कुमेके दोडे अच्युतकल्पपर्यंतमाद देवर्कभिवहारमादिदमो दानों दडेगे पोदर्गळ्गे तावत्क्षेत्रदोळे तदवधिगुत्पत्यभ्युपगदिदं । स्वक्षेत्रे तंतम्म विषयक्षेत्रप्रदेशप्रचयदोळेकप्रदेशं गळे यल्पडुवुदु । स्वकर्मणि तंतम्मवधिज्ञाना. वरणकर्म द्रव्यदोळेकवारं ध्रुवहारं दातव्यमक्कुमन्नवरं तत्प्रदेशप्रचयं परिसमाप्तियक्कुमन्नेवर- १० मिदरिदं तदवधिविषयद्रव्यभेदं सूचिसल्पटुदु । ईयर्थमने विशदं माडिदपं : ___ नवानुदिशपञ्चानुत्तरेषु ये देवाः, ते सर्वां लोकनालि पश्यन्ति अयमर्थः । सौधर्मादिदेवाः उपरि स्वस्वस्वर्गविमानध्वजदण्डशिखरपर्यन्तं पश्यन्ति । नवानुदिशपञ्चानुत्तरदेवास्तु उपरि स्वस्वविमानशिखरमधो यावद्बहितिवलयं तावत् साधिकत्रयोदशरज्ज्वायतां पञ्चविंशत्युत्तरचतुःशतधनुरूनैकविंशतियोजनैन्यूनचतुर्दशरज्ज्वायतां च रज्जुविस्तारां सर्वलोकनालिं पश्यन्तीति ज्ञातव्यम् । इदं क्षेत्रपरिमाणनियामकं न किन्तु तत्रतत्रतनस्थाननि- १५ यामकं भवति कुतः ? अच्युतान्तानां बिहारमार्गेण अन्यत्र गतानां तत्रैव क्षेत्रे तदवध्युत्पत्त्यभ्युपगमात् । स्वक्षेत्रे स्वस्वविषयक्षेत्रप्रदेशप्रचये एकप्रदेशोऽपनेतव्यः । स्वकर्मणि स्वस्वावधिज्ञानावरणकर्मद्रव्ये एकवारं ध्रुवहारो दातव्यः यावत्प्रदेशप्रचयपरिसमाप्तिः स्यात्तावत, अनेन तदवधिविषयद्रव्यभेदः सूचितः ॥ ४३२ ॥ नौ अनुदिशों और पाँच अनुत्तरोंमें जो देव हैं, वे समस्त लोकनाली अर्थात् त्रसनालीको देखते हैं । सौधर्म आदिके देव अपने-अपने स्वर्गके विमानके ध्वजादण्डके शिखरपर्यन्त २० देखते हैं । नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तरोंके देव ऊपर अपने-अपने विमानके शिखरपर्यन्त और नीचे बाह्य तनुवातवलयपर्यन्त देखते हैं। सो अनुदिश विमानवाले तो कुछ अधिक तेरह राजू लम्बी एक राजू चौड़ी समस्त लोकनालीको देखते हैं और अनुत्तर विमानवाले चार सौ पचीस धनुष कम इक्कीस योजनसे हीन चौदह राजू लम्बी एक राजू चौड़ी समस्त त्रसनालीको देखते हैं । यह कथन क्षेत्रके परिमाणका नियामक नहीं है, किन्तु उस-उस , स्थानका नियामक है। क्योंकि अच्युत स्वर्ग तकके देव विहार करके जब अन्यत्र जाते हैं, तो उतने ही क्षेत्रमें उनके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति मानी गयी है। अर्थात् अन्यत्र जानेपर भी अवधिज्ञान उसी स्थान तक जानता है, जिस स्थान तक उसके जाननेकी सीमा है ; जैसे अच्युत स्वर्गका देव अच्युत स्वर्गमें रहते हुए पांचवीं पृथ्वी पर्यन्त जानता है। वह यदि विहार करके नीचे तीसरे नरक जावे, तो भी वह पाँचवीं पृथ्वीपर्यन्त ही जानता है ; उससे ३० आगे नहीं जानता । अस्तु, अपने क्षेत्रमें अर्थात् अपने-अपने विषयभूत क्षेत्रके प्रदेशसमूहमेंसे एक प्रदेश घटाना चाहिए और अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यमें एक बार ध्रुवहारका भाग देना चाहिए। ऐसा तबतक करना चाहिए , जबतक प्रदेशसमूहकी समाप्ति हो। इससे देवोंमें अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यमें भेद सूचित किया है अर्थात् सब देवोंके अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्य समान नहीं हैं ।।४३२।। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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