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________________ ६३८ गो. जीवकाण्डे ततः पश्चात् बळिकमा मनोवर्गणेयं ध्रुवहारदिदं भागिसुत्त पोगलु केवलं विस्रसोपचयरहितमप्प कार्मणैकसमयप्रबद्धमावुदोंदेडयोळपुटुगुमल्लिदत्तला कार्मणसमयप्रबद्धं ध्रुवहारक्के भाज्यराशियक्कुमन्नेवरमें दोडे सविधिज्ञानमेन्नेवरमन्नेवरं ।। एदम्मि विभज्जते दुचरिमदेसावहिम्मि वग्गणयं । चरिमे कम्मइयस्सिगिवग्गणमिगिवारभजिदं तु ॥३९८॥ एतस्मिन् विभाज्यते द्विचरमदेशावधौ वर्गणां । चरमे कामणस्यैकवर्गणामेकवारभक्तां तु । ई कार्मणसमयप्रबद्ध दोलु सावधिपयंतमवस्थितभाज्यदोळु ध्रुवहार पुगुत्तं पोगळु द्विचरमदेशावधियोळु कार्मणवर्गणयक्कुमा कार्मणवर्गण यं तु मत्त एकवार भक्तां ओंदु बारि ध्रुवहारभक्तलब्धमात्रमं चरमे कडयो सर्वोत्कृष्टदेशावधिज्ञानं पश्यति प्रत्यक्षमागि कागुमरिगुं। अंगुल असंखभागे दववियप्पे गदे दु खेत्तम्मि । एगागासपदेसो वड्ढदि संपुण्णलोगोत्ति ॥३९९।। अंगुलाऽसंख्य भागे द्रव्यविकल्पे गते तु पुनः क्षेत्रे। एकाकाशप्रदेशो वर्द्धते संपूर्णलोकपथ्यंतं । सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रद्रव्यविकल्पंगळु सलुत्तं विरळु क्षेत्रदोळेकाकाशप्रदेशं पच्चुगुमो प्रकारदिदमे सर्वोत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयं सर्वोत्कृष्टक्षेत्रं संपूर्णलोकमक्कुमेन्नवरमन्नेवरं पेच्चुगु। आवलि असंखभागो जहण्णकालो कमेण समयेण । वड्ढदि देसोहिवरं पल्लं समऊणयं जाव ॥४००॥ आवल्यसंख्येयभागो जघन्यकालः क्रमेण समयेन वर्द्धते । देशावधिवरः पल्यं समयोनं यावत् । ततः पश्चात् तां मनोवर्गणां ध्र वहारेण पुनः पुनर्भक्त्वा यत्र विकल्पे विविस्रसोपचयः कार्मणैकसमय२० प्रबद्ध उत्पद्यते, तत उपरि स एव ध्र वहारस्य भाज्यं भवेत् यावत्सर्वावधिज्ञानं तावत् ॥३९७॥ एतस्मिन् कार्मणसमयप्रबद्धे विभज्यमाने सति द्विचरमे देशावधिविकल्पे कार्मणवर्गणैवावशिष्यते, तुपुनः, चरमे ध्र वहारेण एकवारभक्तव अवशिष्यते ॥३९८॥ सूच्यङ्गुलासंख्येयभागमात्रेषु द्रव्यविकल्पेषु गतेषु जघन्यक्षेत्रस्योपर्येकाकाशप्रदेशो वर्धते इत्ययं क्रमः तावद्विधेयः यावत् सर्वोत्कृष्टदेशावधिविषयक्षेत्रं सम्पूर्णलोको भवति ॥३९९॥ २५ दूसरे, दुसरेसे तीसरे, तीसरेसे चौथे और चौथेसे पाँचवें भेद सम्बन्धी क्षेत्र कालका परिमाण असंख्यात गुणा है ॥३९५-३९६।। उसके पश्चात् उस मनोवर्गणाको ध्रु वहारसे बार-बार भाजित करते-करते जिस भेदमें बिस्रसोपचयरहित कार्मणशरीरका एक समयप्रबद्ध उत्पन्न होता है। उसीमें आगे भी ध्र वहारका भाग तबतक दिया जाता है जबतक सर्वावधिज्ञानका विषय आता है ॥३९७॥ इस कार्मण समयप्रबद्धमें ध्रुवहारसे भाग देनेपर देशावधिके द्विचरम भेदमें कार्मणवर्गणारूप द्रव्य उसका विषय होता है। और अन्तिम भेदमें ध्रुवहारसे एक बार भाजित कार्मणवर्गणा द्रव्य होता है ॥३९८॥ सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यकी अपेक्षा भेदोंके होनेपर जघन्य क्षेत्रके ऊपर एक आकाशका प्रदेश बढ़ता है। यह क्रम तबतक करना:जबतक सर्वोत्कृष्ट देशावधिज्ञानका ३५ विषयभूत क्षेत्र सम्पूर्ण लोक हो ॥३९९।। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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