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________________ ९३० गो० जीवकाण्डे मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपदिंदमसंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमदिदमंतर्मुहर्तकालं त्रिप्रकृतिगळं माळ्कु। मिथ्यात्वमं मिथ्यात्वमागिये तु माळकुमेंदोडे पूर्वस्थितियं नोडलतिच्छापनावलिमात्रस्थितिहासमं माळकुमें बुदत्थं । अनंतरमा प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालदोळु अप्रमत्तंग प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्रंगळप्पुवप्पुरिदं प्रमत्तगुणस्थानदोळं प्रथमोपशमसम्यक्त्वसंभवमरियल्पडुगुं। आ नाल्कुं गुणस्थानत्तिप्रथमोपशमसम्यग्दष्टिगळु तत्सम्यक्त्वकालमंतर्मुहूर्त्तदोळु षडावलिकालावशेषमादागळुत्कृष्टदिदमनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकालमारावलिप्रमाणमक्कुं। जघन्यदिनेकसमयमक्कुं। मध्यमसंख्यातविकल्पमक्कुं। एत्तलानुं भव्यतागुणविशेषदिदं सम्यक्त्वविराधने इल्लदिौंड तद्गुणस्थानस्थानकालं संपूर्णमागुत्तिरलु सम्यक्त्वप्रकृतियुदयिसि वेदकसम्यग्दृष्टिगळ नाल्कु गुणस्थानत्तिगळप्परु। अथवा मिश्रप्रकृत्युददिदमा नाल्वरुं मिश्र१० रप्परु । मिथ्यात्वकर्मोदयमादुदादोडा नाल्कु गुणस्थानत्तिगळु मिथ्यादृष्टिगळप्परु । द्वितीयोपशम सम्यक्त्वदोळु विशेषमुंटदावुददोडे उपशमश्रेण्यारोहणात्थं सातिशयाप्तमत्तगुणस्थानत्तिवेदकसम्यग्दृष्टिकरणत्रयपरिणामसामर्थ्यदिदमनंतानुबंधि कषायंगळगे प्रशस्तोपशममिल्लप्पुरिंदमप्रशस्तोपशमदिंदमधस्तननिषेकंगळनुत्कर्षिसि मेणु विसंयोजिसि केडिसि दर्शनमोहत्रयक्कंतर करण दिदमंतरमं माडि उपशमविधादिदमुपामिसि अनंतरप्रथमसमयदोनु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वम १५ स्वीकरिसि उपशम श्रेणियं क्रमदिनेरुगु मेरियुपशांतकषायगुणस्थानदोळुमंतर्मुहूर्त्तकालमिद्दिळिवडं क्रदिदमिळिदु अप्रमत्तगुणस्थानमं पोद्दि भव्यजीवं प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्रेगळं द्वितीयोपशम यगपत्प्राप्य अप्रमत्तसंयतो भवति । ते त्रयोऽपि तत्प्राप्तिप्रथमसंयममादि कृत्वा गुणसंक्रमणविधानेन मिथ्यात्वद्रव्यं गुणसंक्रमणभागहारेण अपकृष्यापकृष्य मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण असंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमण अन्तर्मुहतं कालं त्रिधा कुर्वन्ति । मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु पूर्वस्थितौ अतिस्थापनावलिमात्रमूनयन्तीत्यर्थः । २० तदप्रमत्तस्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्रसंभवात् प्रमत्तेऽपि तत् सम्यक्त्वं स्यात् । ते अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये सासादना भवन्ति । अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्त्वप्रकृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयः वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्टयः वा मिथ्यात्वोदये प्रथमोपशमसम्यक्त्व और महाव्रतोंको एक साथ प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत होता है । वे तीनों २५ भी उसकी प्राप्तिके प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रमण विधानके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यको गुणसंक्रमण भागहारके द्वारा घटा-घटाकर मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिरूपसे अन्तर्मुहूर्तकाल तक तीन रूप करता है। इनका द्रव्य उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा हीन होता है। मिथ्यात्वका मिथ्यात्वकरण तो पूर्वस्थितिमें अतिस्थापनावली मात्र कम करता है। जो अप्रमत्तमें जाता है, वह अप्रमत्तसे प्रमत्तमें और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें संख्यात हजार बार ३० आता-जाता है।अतः प्रमत्तमें भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । अप्रमत्तसंयतके बिना शेष तीनों ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें जघन्यसे एक समय उत्कृष्टसे छह आवली काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभमें से किसी भी एकका उदय होनेपर सासादन होते हैं। अथवा वे चारों भी यदि भव्यत्वगुणकी विशेषतासे सम्यक्त्वकी विराधना नहीं करते तो उस सम्यक्त्व काल पूर्ण होनेपर सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें ३५ वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं या मिश्र प्रकृतिके उदय होनेपर सम्यमिथ्यादृष्टि होते हैं अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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