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________________ ५८४ गो० जीवकाण्डे इवेकद्वित्रिसंयोगादिचतुःषष्ठिसंयोगपर्यंतमप्प संयोगाक्षरसंजनिताक्षरंगळ संख्येयप्पुरि ना एकद्वित्रिसंयोगाक्षरंगलिनुत्पत्तिकमंतोरल्पडुगुमदते दोडे व्यंजनंगळु त्रयस्त्रिशत्प्रमितंगळु । स्वरंगळु सप्तविंशतिप्रमितंगळु। योगवहंगळु चतुःप्रमितंर्गाळंतु मूलवण्नंगळु चतुःषष्टिप्रमितंगलिवं क्रमदिंद मरुवत्तनाल्कडयोल बेरे बेरे तिर्यग्रूपदिदं स्थापिसि प्रत्येकं द्विसंयोगादिगळं माळ्पुदेत दोडे कवर्ण५ दोळ प्रत्येकभंगमो देयकुं१। द्विसंयोगमुळ्ळ खवर्णदोळु प्रत्येकभंगदु १। द्विसंयोगभंग १। अंतु २। गवर्णदोळु प्र१। द्वि २ त्रि ३ । अंतु ४। घवर्णदो प्र१। द्वि २ त्रि३ च १ अंतु ८। ङ वर्णदोल प्र१ द्वि ४ त्रि ६ च ४ पं १ अंतु १६ च वर्णदो प्र१द्वि ५ त्रि१० च १० पं ५ ष १ अंतु ३२। छवर्णदोळ प्र १ द्वि ६ त्रि १५ च २० पं १५ ष ६ सप्त १ अंतु ६४। जवर्णदोळ प्र१ द्वि ७ त्रि २१ च ३५ ५ ३५ ष २१ सप्त ७ अष्ट १ अंतु १२८ । झवर्णदोळु प्र१ द्वि ८ त्रि २८ रूपोने कृते सति श्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गप्रकीर्णकरूपश्रुतस्कन्धस्य द्रव्यश्र तस्य अपुनरुक्ताक्षराणि भवन्ति । वाक्यार्थप्रतीत्यर्थ गृहीतानां पुनरुक्ताक्षराणां संख्यानियमाभावात् ॥३५३॥ तदपुनरुक्ताक्षरप्रमाणं कियदिति चेदाह एकाष्टचतुश्चतुःषट्सप्तकं चतुश्चतुःशून्यसप्तत्रिकसप्तशन्यं नवपञ्चपञ्च एक षटकंकश्च पञ्चकं च इत्येकाङ्गादिपञ्चाङ्कावसानविंशतिस्थानात्मक द्विरूपवगंधारोत्पन्नरूपोनषष्ठवर्गप्रमाणाक्षराणि भवन्ति१५ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ । एतानि अक्षराणि एकद्वित्रिसंयोगादीनि चतुपष्टिसंयोगपर्यन्तानि सन्ति तेषामुत्पत्तिक्रमो दर्श्यते तद्यथा-उक्तमूलवर्णचतुःषष्टि तिर्यक्पङ्क्त्या लिखित्वा तत्र कवणे प्रत्येकभङ्गे एकः १ । द्विसंयोगो नास्ति । खवणे प्रत्येकभङ्गः १ द्विसंयोगभङ्गः १ एवं २ । गवर्णे प्र१ द्वि २ त्रि १ एवं ४ । घवर्णे प्र१द्वि ३ त्रि ३ च १ एवं ८। डवणे प्र१ द्वि ४ त्रि ६ च ४ पं १ एवं १६ । चवणे प्र १ द्वि ५ त्रि १० च १० पं ५ष १ एवं ३२ । छवर्णे प्र१ द्वि ६ वि १५ च २० पं १५ प ६ सप्त १ एवं ६४ । वणे प्र१द्वि ७ वि २१ च ३५ पं ३५ ष २१ सप्त ७ अष्ट १ एवं १२८ । झवणे प्र१ द्वि ८ त्रि २८ दोका अंक देकर परस्परमें गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो,उसमें एक कम करनेपर द्वादशांग और प्रकीर्णक श्रुतस्कन्ध रूप द्रव्य श्रुतके अपुनरुक्त अक्षर होते हैं। वाक्यके अर्थका ज्ञान करानेके लिए गृहीत पुनरुक्त अक्षरोंकी संख्याका कोई नियम नहीं है ॥३५३।।। एक आठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नौ पाँच पाँच २५ एक छह एक पाँच १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इस प्रकार एक अंकसे लेकर पाँच अंक पर्यन्त बीस स्थानरूप अपुनरुक्त अक्षर होते हैं । सो द्विरूप वर्गधारामें उत्पन्न एक हीन छठे वर्ग प्रमाण हैं । ये अक्षर एक संयोगी,दो संयोगी, तीन संयोगी, आदि चौंसठ संयोग पर्यन्त, होते हैं। उनकी उत्पत्तिका क्रम दिखलाते हैं उक्त मूल वर्ण चौंसठ एक पंक्ति में लिखें। उनमें से कवर्णमें प्रत्येक भंग एक है। ३० द्विसंयोगी आदि नहीं है । खवर्णमें प्रत्येक भंग एक द्विसंयोगी भंग एक है । इस प्रकार दो भंग हैं। गवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी दो, तीन संयोगी एक, इस तरह चार भंग हैं। घवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी तीन, तीन संयोगी तीन, चार संयोगी एक, इस तरह आठ भंग हैं। ङवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी चार, तीन संयोगी छह, चार संयोगी चार, पाँच संयोगी एक, इस तरह सोलह भंग हैं। चवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी पाँच, त्रिसंयोगी दस, चार । संयोगी दस, पाँच संयोगी पाँच, छह संयोगी एक, इस तरह बत्तीस भंग हैं । छवर्णमें प्रत्येक ' एक, दो संयोगी छह, तीन संयोगी पन्द्रह, चार संयोगी बीस, पाँच संयोगी पन्द्रह, छह संयोगी छह, सात संयोगी एक, इस तरह चौंसठ भंग हैं। जवर्णमें प्रत्येक एक दो, संयोगी सात, तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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