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________________ ६३० गो. जीवकाण्डे जघन्यमनोद्रव्यवर्गणाप्रमाणमनंत मदर । ज। अनंतैकभागदिनधिकमुत्कृष्टमनोद्रव्यवर्गणाप्रमाणमक्कु ज ख मिंतु मुंपेळ्द क्रमदिदमादियंते सुद्धे इत्यादिविधानदिदं तरल्प? ख ख मनोद्रव्यवर्गणाविकल्पंगळ ज १ अनंतकभागदोडने ज १ अवधिविषयद्रव्यविकल्पंगळोळु पुगुव ध्रुवहारप्रमाणं समानमेंदु निश्चयिसुवुदु ॥ अथवा : धुवहारस्स पमाणं सिद्धाणंतिमपमाणमेत्तं पि । समयपबद्धणिमित्तं कम्मणवग्गणगुणादो दु ॥३८८॥ ध्रुवहारस्य प्रमाणं सिद्धानंतैकभागप्रमाणमात्रमपि। समयप्रबद्धनिमित्तं कार्मणवर्गणागुणात्तु ॥ होदि अणंतिमभागों तग्गुणगारोवि देसओहिस्स । दोऊणदव्वमेदपमाणं धुवहारसंवग्गो ॥३८९॥ भवत्यनंतैकभागस्तद्गुणकारोपि देशावद्धिरूपोनद्रव्यभेदप्रमाणध्रुवहारसंवर्गः ॥ ध्रुवहारप्रमाणं सिद्धानंतैकभागप्रमाणमात्रमादोडमवधिविषयसमयप्रबद्धनिश्चयनिमित्तं कार्मणवर्गणागुणकारमं नोडलु तु मत्ते अनंतैकभागमक्कुमा कार्मणवर्गणागुणकारमुं देशावधि ज्ञानद्विरूपोनद्रव्यविकल्पप्रमितध्रुवहारंगळ संवर्गमक्कुमा देशावधिज्ञानद्रव्यविकल्पंगळेनित दोडे १५ पेळल्पडुगु । देशावधिद्रव्यविकल्परचनयोळु त्रिचरमदेशावधिद्वव्यविकल्पदोळु गुण्यरूपकार्मणवर्गणगे मनोद्रव्यवर्गणाजघन्यं अनन्तो भवति । तदनन्तकभागेनाधिकमुत्कृष्टं भवति इत्येवमुक्तरीत्या मनोद्रव्य वर्गणाविकल्पानामनन्तकभागः ख ख अवधिविषयद्रव्यविकल्पेषु ध्र वहारप्रमाणं ज्ञातव्यम् । अथवा ध्रुवहारप्रमाणं सिद्धानन्तकभागमात्रमपि अवधिविषयसमयप्रबद्धप्रमाणमानेतुं उक्तस्य कार्मणवर्गणा२० गुणकारस्य अनन्तकभागमात्र स्यात् । स च गुणकारोऽपि कियान् ! देशावधिज्ञानस्य द्विरूपोनद्रव्यभेदमात्र मनोवर्गणाका जघन्य भेद अनन्त प्रमाण है। अर्थात् अनन्त परमाणुओंके स्कन्धरूप जघन्य मनोवगणा है। उसमें अनन्तका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उसे उस जघन्य भेदमें जोडनेपर उसीके उत्कृष्ट भेदका प्रमाण होता है। इस प्रकार मनोद्रव्य वर्गणाके विकल्पोंके अनन्त भाग अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्योंके विकल्पोंमें ध्रुवहारका प्रमाण २५ है ।।३८७॥ यद्यपि ध्रुवहारका प्रमाण सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग है, किन्तु अवधिज्ञानके विषयभूत समयप्रबद्धका प्रमाण लानेके लिए पहले कहे कामणवर्गणाके गुणकारका अनन्तवाँ भाग है। और वह गुणकार देशावधिज्ञानके द्रव्यकी अपेक्षा भेदोंमें दो घटाकर जो प्रमाण शेष रहे,उतनी जगह ध्रवहारोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण हो, उतना है। ३० इतना प्रमाण कैसे कहा, सो कहते हैं-देशावधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यकी रचनामें उत्कृष्ट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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