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________________ ९९९ ७०२ गो० जीवकाण्डे मंदसंक्लेशस्थानंगळ तदसंख्यातलोकभक्तबहुभागमात्रंगळप्पुवु =a ८ पालेश्याविशुद्धिस्थानंगळु मंदतरसंक्लेशस्थानंगळु तदेकभागबहुभागमात्रंगळप्पुवु = ०८ शुक्ललेश्याविशुद्धिस्थानंगळु मंदतमसंक्लेशस्थानंगळु शेषकभागमात्रंगळप्पुवु = ३१ ई कृष्णलेश्यावियादारं स्थानंगळोळु प्रत्येकमशुभंगळोळुत्कृष्टदिदं जघन्यपर्यंत शुभंगळोळं जघन्यदिदमुत्कृष्टपर्यंतमसंख्यातलोकमात्र५ षट्स्थानपतितहानिवृद्धियुक्तस्थानंगळप्पुवु खलु नियमदिदं । असुहाणं वरमज्झिमअवरंसे किण्हणोलकाउतिए । परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स ।।५०१॥ अशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकपोतत्रये परिणमति क्रमेणात्मा परिहानितः संक्लेशस्य। कृष्णनीलकपोतत्रिस्थानंगळ अशुभंगळप्पुत्कृष्टमध्यमजघन्यांशंगळोळ जीवं संक्लेशहानियिंदं क्रमदिदं परिणमिसुगुं । लोकभक्तकभागमात्रेषु । १ तेजोलेश्यामन्दसंक्लेशस्थानानि तदसंख्यातलोकभक्तबहुभागमात्राणि = a । ८ पद्मलेश्याविशुद्धिस्थानानि मन्दतरसंक्लेशस्थानानि तदेकभागबहुभागमात्राणि= । ८ शुक्ललेश्याविशुद्धि ९।९।९ स्थानानि मन्दतमसंक्लेशस्थानानि शेषकभागमात्राणि: ।।१ । एतेषु कृष्णलेश्यादिषट्स्थानेषु प्रत्येकमशुभेषु १५ उत्कृष्टाज्जघन्यपर्यन्तं शुभेषु च जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तं असंख्यातलोकमात्रषट्स्थानपतितहानिवृद्धिस्थानानि भवन्ति खलु-नियमेन ॥५०॥ ___ कृष्णनीलकपोतत्रिस्थानेषु अशुभरूपोत्कृष्टमध्यमजघन्यांशेष जीवः संक्लेशहानितः क्रमेण परिणमति ॥५०१॥ नीललेश्या सम्बन्धी तीव्रतर संक्लेश स्थान हैं। शेष रहे एक भाग प्रमाण कापोतलेश्या २० सम्बन्धी तीव्र संक्लेश स्थान हैं। पहले कषायोंके उदय स्थानोंमें असंख्यात लोकसे भाग देकर जो एक भाग प्रमाण शुभ लेश्या सम्बन्धी स्थान कहे थे। वे तेज, पद्म और शुक्लके भेदसे तीन प्रकारके हैं। उनमें असंख्यात लोकसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण तेजोलेश्या सम्बन्धी मन्द संक्लेश स्थान हैं। शेष बचे एक भागमें पुनः असंख्यात लोकसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण पद्मलेश्या सम्बन्धी मन्दतर संक्लेशस्थान हैं। शेष रहे एक भाग प्रमाण शुक्ल लेश्या २५ सम्बन्धी मन्दतम संक्लेश स्थान हैं। इन कृष्णलेश्या आदि सम्बन्धी छह स्थानोंमें-से प्रत्येकमें अशुभमें तो उत्कृष्टसे जघन्य पर्यन्त और शुभ लेश्याओंमें जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि स्थान नियमसे होते हैं ।।५००। यदि जीवके संक्लेश परिणामोंमें हानि होती है, तो वह अशुभ कृष्ण नील और कापोत लेश्याओंके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य अंशोंमें क्रमसे परिणमन करता है अर्थात् उस लेश्याके ३० उत्कृष्ट अंशसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्यरूप परिणमन करता है ।।५.१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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