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________________ ५२८ १० गो० जीवकाण्डे सुहमणिगोद अपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्मि । हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥३२०॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये भवति खलु सर्वजघन्यं नित्योद्घाट निरावरणं ॥ ५ सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तक जननद प्रथमसमयदोळु निरावरणं प्रच्छादनरहितमप्प नित्योद् घाटं सर्वदा प्रकाशमानमप्प सर्वजधन्यं सर्वनिकृष्टशक्तिकमप्प पर्याय ब श्रु तज्ञानमक्कुं । खलु । ई गाथासूत्रं पूर्वाचार्यप्रसिद्धं स्वोक्तार्थसंप्रतिपत्तिप्रदर्शनार्कामागि उदाहरणवदिदं बरेयल्पदुदु । सुहुमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण । चरिमापुण्ण तिवक्काणादिमवक्कट्टियेव हवे ॥३२१।। सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तगतेषु स्वसंभवेषु भ्रमित्वा । चरमापूर्णत्रिवक्राणामाद्यवस्थित एव भवेत् ॥ सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तनोळु संद स्वसंभवेषु द्वादशोत्तरषट्सहस्रप्रमितंगळप्प भवेषु भवंगळोळु भ्रमित्वा भ्रमिसि चरमापूर्णभवद त्रिवक्रविग्रहगतियिंदमुत्पन्नजीवन प्रथमवक्रद प्रथमसमयदोलिदंगेये मुंपेन्द सर्वजघन्यपर्यायमें ब श्रुतज्ञानमक्कुं। मत्तल्लिये तज्जीवक्के स्पर्शनेंद्रियप्रभवसर्वजघन्यमतिज्ञानमचक्षुद्देशनावरणक्षयोपशमसमुद्भूताचक्षुर्दर्शनमुमक्कुभेके दोर्ड - सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जातं-जननं तस्य प्रथमसमये निरावरणं-प्रच्छादनरहितं नित्योद्घाट अतएव सर्वदा प्रकाशमानं सर्वजधन्यं-सर्वनिकृष्टशक्तिकं पर्यायाख्यं पूर्वाचार्यप्रसिद्धं-स्वोक्तार्थसंप्रतिपत्तिप्रदर्शनार्थ उदाहरणत्वेन लिखितम् ॥३२०॥ __सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकेषु स्वसंभवेषु द्वादशोत्तरषट्सहस्रप्रमितेषु भवेषु भ्रमित्वा चरमापूर्णभवस्य त्रिवक्रविग्रहगत्या उत्पन्नस्य जीवस्य प्रथमवक्रसमये स्थितस्यैव पूर्वोक्तं सर्वजघन्यं पर्यायाख्यं श्रु तज्ञानं भवति तत्रैव तस्य जीवस्य स्पर्शनेन्द्रियप्रभवं सर्वजघन्यं मतिज्ञानं, अचक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमसंभूतं अचक्षुर्दर्शनमपि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके जन्मके प्रथम समय पर्यायनामक श्रुतज्ञान होता है। यह निरावरण है,इसीसे सर्वदा प्रकाशमान रहता है, सबसे जघन्य अर्थात् निकृष्ट शक्तिवाला होता है। यह गाथा सूत्र प्राचीन है। यहाँ ग्रन्थकारने अपने कथनकी यथार्थता दिखलाने के २५ लिए उदाहरणके रूपमें लिखा है ॥३२०॥ सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक सम्बन्धी छह हजार बारह भवोंमें भ्रमण करके अन्तिम लब्ध्यपर्याप्तक भवमें तीन मोड़ेवाली विग्रहगतिसे उत्पन्न होकर प्रथम मोड़ेके समयमें स्थित होता है। उसके ही सबसे जघन्य पर्याय श्रुतज्ञान होता है। उसी समय उसके स्पर्शन इन्द्रियजन्य सबसे जघन्य मतिज्ञान होता है और ३० अचक्षुदर्शनावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न अचक्षुदर्शन भी होता है। वहाँ ही सबसे जघन्य पर्याय श्रुतज्ञान होनेका कारण यह है कि बहुत क्षुद्रभवोंमें भ्रमण करनेसे उत्पन्न हुए बहुत १. ब पर्यायनाम । २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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