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________________ ५९० सानमाद चतुःषष्टिस्थानविकल्पंगळोळक्षसंचारदिदमुं पत्तेयभंगमेगमित्यादिकरणसूत्रविधानदिदं मेणुतरल्पट्ट प्रत्येकद्विसंयोगादिवर्णविकल्पंगळ युतिप्रतिस्थानमुमेकवर्णस्थानं मोदल्गो डु चतुःषष्टिवर्णस्थानावसानमागि वो देरडु नाक टु पदिनारु मूवत्तेरडु अरुवत्तनात्कु तरिप्पत्ते टिभूरध्वत्तारैतूरहन्नेरी क्रमद द्विगुणद्विगुणंगळागुत्तं पोगि चतुश्चरमत्रिचरमद्विचरम चरमस्थानं गळोळ एक्कट्ठन षोडशांश मेक्कनष्टमांशमेक्कनचतुर्थांशमेक्कन प्रमिताक्षरविकल्पंगळ संदृष्टि :१ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । १२८ । २५६ । ५१२ । ०००/५०।००१८ = १८ = १८ = १८= १६ ८ ४ २ ५ १५ १० १८ = । एवमेकाद्येकोत्तरक्रमेण चतुःषष्ट्यन्तवर्णस्थानेष्वक्षसंचारक्रमेण 'पत्तेयभंगमेकामित्यादि-करणसूत्र २ गो० जीवकाण्डे २० इंतिर्दक्षरविकल्पसंख्येगळं चउसट्ठिपदंविरत्रिय इत्यादिगुणसंकलन विधानदिदं मेणु अंतधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणंतरभजियमे दितु संकलन धनमं तरुत्तिरलु द्वादशांगप्रकीर्णक श्रुतस्कंध - समस्ताक्षरंगळ संख्ये रूपोनेकट्ठप्रमितमक्कु बुदु तात्पय्यं । ३० स्थान में प्रत्येक आदि चौंसठ संयोगी पर्यन्त भंगोंको जोड़नेपर एकट्ठीके आधे प्रमाण मात्र भंग होते हैं । इस प्रकार एक आदि एक-एक अधिक चौंसठ पर्यन्त अक्षरोंके स्थानों में 'पत्तेयभंगमेगं' इत्यादि करण सूत्र के अनुसार भंग होते हैं । अथवा गुणस्थानोंके वर्णनमें प्रमादोंका व्याख्यान करते हुए जो अक्षसंचार विधान कहा था, उसके अनुसार भी इसी प्रकार भंग होते हैं । वे भंग क्रमसे एक, दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौंसठ, एक सौ अट्ठाईस दो सौ छप्पन, पाँच सौ बारह, एक हजार चौबीस, दो हजार अड़तालीस, चार हजार छियानवेआठ हजार एक सौ बानबे, सोलह हजार तीन सौ चौरासी, बत्तीस हजार सात सौ अड़सठ, पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस, एक लाख बत्तीस हजार बहत्तर, दोलख बासठ हजार एक सौ चंवालीस, पाँच लाख चौबीस हजार दो सौ अठासी, दस लाख अड़तालीस हजार पाँच सौ छियत्तर, बीस लाख सत्तानबे हजार एक सौ बावन, इकतालीस लाख चौरानबे हजार तीन सौ दो, तिरासी लाख अठासी हजार छह सौ चार, एक करोड़ सड़सड़ लाख तिहत्तर हजार दो सौ आठ, आदि दूने दूने होते हैं । अन्तिम स्थानसे चौथे, तीसरे, दूसरे तथा अन्तिम स्थानमें अर्थात् ६१, ६२, ६३ और ६४वें स्थान में एकट्ठी के सोलहवें भाग, आठवें भाग, चतुर्थ भाग और आधे भाग प्रमाण भंग होते हैं । इस प्रकार स्थित अक्षरोंकी संख्या 'चउसट्ठि पदं विरलिय' इत्यादि के द्वारा या 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादिके द्वारा संकलित की जानेपर द्वादशांग और अंगबाह्य श्रुतस्कन्धोंके समस्त अक्षरोंकी संख्या एक ही एकट्ठी प्रमाण होती है ॥ ३५४ ॥ २५ विधानेन वा आनीतानां प्रत्येकद्विसंयोगादीनां युतिः क्रमशः एको द्वौ चत्वारोऽष्टौ षोडश द्वात्रिंशच्चतुःषष्टिरष्टाविंशत्यग्रं शतं षट्पञ्चाशदधिकद्विशतं द्वादशोत्तरपञ्चशतभेदं द्विगुणा द्विगुणा भूत्वा चतुश्चरमत्रिचरमद्विचरमचरमेषु एकट्टस्य षोडशांशाष्टांशचतुर्थांशार्द्धप्रमिता भवन्ति । १ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । १२८ । २५६ । ५१२ । ००० ०० | ००० १८ = | १८ = | १८ = | १८ = । एवं स्थिताक्षर - १६ । ८ । ४ । २ संख्या 'चट्ठपदं विरलिय' इत्यादिना वा 'अन्तघणं गुणगुणियं' इत्यादिना वा संकलिता सती द्वादशाङ्गप्रकीर्णकश्रुतस्कन्धसमस्ताक्षरसंख्या रूपोनैकट्ट प्रमिता भवतीति तात्पर्यम् ॥३५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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