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________________ ७५४ a ५५ गो० जीवकाण्डे दोडे द्वितीयपददोळु क्षेत्रमक्कु ५४।६।१ वैक्रियिकसमुद्घातपंचमजीवराशियं स्वस्वयोग्यमागिविगुम्विसिद शरीरावगाहनंगळिदं लब्धसंख्यातघनांगुलंगळिवं गुणिसिदोडे वैक्रियिकसमुद्घातपददोळु क्षेत्रमक्कु प ६१ मतं मारणांतिकसमुद्घातषष्ठपददोळु रज्जुषट्कायामसूच्यंगुल. संख्यातभागविष्कभोत्सेध २ २ क्षेत्रघनफलमिदे -६ । ४ कजीवप्रतिबद्धमक्कुमी क्षेत्रमु ५५५५ wwwwwww ५ मानतादिदेवरुगळ्गे मनुष्यरोळंयुत्पतिनियममप्पुरिदं च्युतकल्पदोळ संख्यातजीवंगळे मरण मनेप्दुवुवदु कारणमागि संख्यातजीवंगाळदं गुणिसिदोर्ड मारणांतिकसमुद्घातक्षेत्रपदमक्कुं १७।६।४ तैजससमुद्घातपददोळं आहारकसमुद्घातपददोळं पद्मलेश्ययोळ्पेळ्दंत क्षेत्रंगळप्पुवु ते १।६।१।आ १।६।१। केवलिसमुद्घातपददोलु क्षेत्रं पेळल्पडुगु मदते दोडल्लि दंडसमु क्षेत्रघनफलसंख्यातघनामुलैः ६ १ गुणिते विहारवत्स्वस्थाने क्षेत्रं भवति ५ । ४ । ६१ । पुनः पञ्चमराशी १. स्वस्वयोग्यतया विकुर्वितशरीरावगाहलब्धसंख्यातघनामुलैः ६ १ गुणिते वैक्रियिकसमुद्घातपदे क्षेत्र भवति प । ६१ ०५ । ५ । ५ ५ पुनः रज्जुषट्कायामसूच्यगुलसंख्यातभागविष्कम्भोत्सेध २ । २ क्षेत्रधनफलमेकजीवप्रतिबद्धं भवति a५५ । ६ -६। ४ अस्मिन्नानतादिदेवानां मनुष्येष्वेवोत्पत्तेस्तत्र संख्यातैरेव म्रियमाणगणिते मारणान्तिकसमुद्घातक्षेत्र भवति १ । ७ ६ । ४ तैजसाहारकसमुद्घातक्षेत्रं पद्मलेश्यावत् । तै १।६१ । आ १ । ६१ केवलि १५ विहारवत्स्वस्थान सम्बन्धी क्षेत्र होता है। तथा अपने-अपने योग्य विक्रियारूप बनाये गये हाथी आदि के शरीरकी अवगाहना संख्यात धनांगुल है। उससे वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर वैक्रियिक समुद्घातमें क्षेत्रका प्रमाण आता है। शुक्ललेश्या आनतादि स्वगोंमें होती है । सो आरण-अच्युतकी मुख्यतासे वहाँसे मध्यलोक छह राजू है। अतः वहाँसे मारणान्तिक समुद्घात करनेपर एक जीवके प्रदेश छह राजू लम्बे और २० सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग चौड़े-ऊँचे होते हैं। उसका जो क्षेत्रफल एक जीवको अपेक्षा हुआ, उसको संख्यातसे गुणा करना, क्योंकि आनतादिकसे मरकर देव मनुष्य ही होता है। इसलिए मारणान्तिक समुद्घातवाले जीव संख्यात ही होते हैं। अतः संख्यातसे गुणा करनेपर मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र आता है। तैजस और आहारक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र पद्मलेश्यामें जैसा कहा है, वैसा ही जानना । अब केवलि समुद्घातमें क्षेत्र कहते हैं२५ १. म. तपदक्षेत्रम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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