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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५१९ बहुव्यक्ति विषयग्रहणमतिज्ञानदीळ तद्विषयमुं बहु एंदितु पेळल्पटुदु, एंतीगलु खंडमुंडशबलादि बहुगोव्यक्तिगळिवंदितु । बहुजातिग्रहणमतिज्ञानदो तद्विषयं बहुविधमेंदु पेळल्पटुदु । येतीगल गोमहिषाश्वादिबहुजातिगळे दितु। इतरग्रहणे एकव्यक्तिग्रहणमतिज्ञानदोळु तद्विषयमेकः ओदु यतीगळु खंडनिदे दितु । एक जातिग्रहणमतिज्ञानदो तद्विषयमेकविधर्म तोगळु खंडनागलि मुंडनागलियदु गोवर्य दितु। क्षिप्रादिगळु क्षिप्राऽनिःसृतानुक्तध्रुवंगळं सेतरंगळुमक्षिप्रनिःसृत उक्त अध्रुवंगळु तंतम्म नादिदमे सिद्धंगळऽदे ते दोडे क्षिप्रमें बुदु शोव्रदिनिहितप्प जलधाराप्रवाहादियक्कुमनिःसृतमें बुदु गूढं जलमग्नहस्त्यादियक्कुमनुक्त,बुदु अकथितमभिप्रायगतमकुं। ध्र वर्मबुदु स्थिरं चिरकालावस्थायिपर्वतादियककुमक्षिप्रमें बुदु मंदगमनाश्वादियकुं । निःसृतमबुदु व्यक्तनिष्क्रांतं जलनिर्गतहस्त्यादियक्कुमुक्तमबुदु इदु घटम दितु पेळल्पटु दृश्यमानमक्कुमभ्रूवमेंबुदु क्षणस्थायि १० विद्युदादियक्कुं। वत्थुस्स पदेसादो वत्थुग्गहणं तु वत्थुदेसं वा । सयलं वा अवलंबिय अणिस्सिदं अण्णवत्थुगई ।।।३१२।। वस्तुनः प्रदेशतो वस्तुग्रहणं तु वस्तुदेशं वा। सकलं वाऽवलंब्यानिःसृतमन्यवस्तुगतिः॥ बहुव्यक्तीनां ग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषयो बहुरित्युच्यते यथा खण्डमुण्डशबलादिबहुगोव्यक्तयः। बहुजातीनां १५ ग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषयो बहुविध इत्युच्यते यथा गोमहिषाश्वादिबहुजातयः इति । इतरग्रहणे एकव्यक्तिग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषय एकः यथा खण्डोऽयमिति । एकजातिग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषय एकविधः यथा खण्डो वा मुण्डो वा गौरिति । क्षिप्रादयः क्षिप्रानिसृतानुक्तध्र वाः स्वेतरे च अक्षिप्रनिसृतोता- वाश्च स्वस्वनामत एव सिद्धाः । तथाहि क्षिप्रः शीघ्रपतज्जलधाराप्रवाहादिः । अनिसृतः गूढो जलमग्नहस्त्यादिः । अनुक्तः अकथितः अभिप्रायगतः । ध्र वः स्थिरः चिरकालावस्थायी पर्वतादिः । अक्षिप्रः मन्दं गच्छन्नश्वादिः । निसृतः व्यक्तनिष्क्रान्तः २० जलनिर्गतहस्त्यादिः । उक्तः अयं घटः इति कथितो दृश्यमानः । अघ्र वः क्षणस्थायी विद्युदादिः । तथा चेतिशब्दौ समुच्चयार्थी ॥३१॥ जो मतिज्ञान बहुत व्यक्तियोंको ग्रहण करता है, उसके विषयको बहु कहते हैं जैसे खण्डी, मुण्डी, चितकबरी आदि बहुत-सी गायें। जो मतिज्ञान बहुत-सी जातियोंको ग्रहण करता है, उसके विषयको बहुविध कहते हैं । जैसे गाय, भैस, घोड़ा आदि बहुत-सी जातियाँ। २५ जो मतिज्ञान एक व्यक्तिको ग्रहण करता है, उसके विषयको एक कहते हैं जैसे खण्डी गौ। जो मतिज्ञान एक जातिको ग्रहण करता है, उसके विषयको एकविध कहते हैं। जैसे खण्डी या मुण्डी गौ । शेष क्षिप्र, अनिमृत, अनुक्त, ध्रुव और उनके प्रतिपक्षी अक्षिप्र, निस्मृत, उक्त, अध्रुव तो अपने नामसे ही स्पष्ट है । क्षिप्र जैसे शीघ्र गिरती हुई जलधाराका प्रवाह अ अनिमृत गूढ़को कहते हैं जैसे जल में डूबा हाथी आदि । अनुक्त बिना कहे हुए को या अभि- ३० प्रायमें वर्तमानको कहते हैं। ध्रुव स्थिरको कहते हैं जैसे चिरकाल तक स्थायी पर्वत आदि । अक्षिप्र जैसे धीरे-धीरे जाता हुआ घोड़ा वगैरह । निमृत व्यक्त या निकले हुएको कहते हैं। जैसे जलसे निकला हाथी आदि । उक्त 'यह घट है'; इस प्रकारसे जो कहा गया, वह विषय उक्त है । अध्रुव जैसे क्षणस्थायी बिजली आदि । तथा और 'चशब्द समुच्चयवाची है ॥३११॥ १. ब बहुर्यथा । २. ब बहुविध यथा । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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