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________________ ५१८ गो० जीवकाण्डे वो दोद विषयदोळ परंगे पेन्दष्टाविंशतिप्रकारमप्प मतिज्ञानं जाते सति पुटुत्तमिरलु मतिज्ञानं तु पुनः मत्ते षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदमक्कुमेत दोडे अर्थात्मकबहुविषयमा दरोळु अनिद्रियेंद्रियभेददिदं मतिज्ञानंगळु षट्प्रकारंगेळप्पु ६ वल्लि प्रत्येकमवग्रहहावायधारणा एंब मतिज्ञानभेदंगळु नाल्कुं नाल्कुमागलुमारक्कमिप्पत्तनाल्कुंभेदंगळ्पुटुव २४वी प्रकारदिदं व्यंजनात्मक बहुविषयदोळु ५ स्पर्शनरसनघ्राण श्रोत्रंगळे ब चतुष्कदिदं चतुरवग्रहज्ञानंगळे पुटुवितु अर्त्यव्यंजनात्मकबहुविषय. दोळु कूडि मतिज्ञानभेदंगळष्टाविंशतिप्रकारंगळप्पु २८ वी प्रकारदिदमे अर्थव्यंजनात्मकबहुविधादिगळोळु प्रत्येकमष्टाविंशतिअष्टाविंशतिमतिज्ञानभेदंगळागुत्तमिरलु अर्थव्यंजनात्मकबहुविषयादि पन्नेरडु विषयंगळोळु पुटुव मतिज्ञानभेदंगळु षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदंगळप्पुवु ३३६ । बहुवत्तिजादिगहणे बहुबहुविहमियरमियरगहणम्मि । सगणामादो सिद्धा खिप्पादी सेदरा य तहा ॥३११।। बहुव्यक्तिजातिग्रहणे बहुबहुविधमितरमितरग्रहणे । स्वकनामतः सिद्धाः क्षिप्रादयः सेतराश्च तथा॥ एकैकस्मिन् विषये प्रागुक्ताष्टाविंशतिप्रकारे मतिज्ञाने जाते उत्पन्ने सति मतिज्ञानं तु पुनः षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदं भवति ३३६ । तद्यथा-बहविषये अर्थात्मके अनिन्द्रियेन्द्रियभेदेन मतिज्ञानस्य भेदाः षट् , त एव पुनः अवग्रहहावायधारणाभेदेन प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारो भूत्वा चतुविशतिः । तथा व्यञ्जनात्मके तु स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रैश्चत्वारोऽवग्रहा एव । एवमर्थपञ्जनात्मके बहुविषये मिलित्वा मतिज्ञानभेदा अष्टाविंशतिर्भवन्ति । अनेन प्रकारेण अर्थव्यञ्जनात्मक बहुविधादिष्वपि प्रत्येकमष्टाविंशत्यष्टाविंशतिज्ञानभेदेषु जातेषु द्वादशविषयेषु मतिज्ञानभेदाः षत्रिंशदुत्तरत्रिशतीप्रमिता भवन्ति । यद्यकस्मिन्विषये अष्टाविंशतिर्मतिज्ञानभेदा भवन्ति तदा द्वादशसु विषयेषु कियन्तो मतिज्ञानभेदा भवन्तीति प्र१1 फ २८। इ१२ त्रैराशिकं कृत्वा इच्छां फलेन २० संगुण्य प्रमाणेन भक्त्वा लब्धस्य तत्प्रमाणत्वात् ॥३१०॥ और अध्रुव । इन बारहों में से एक-एक विषयमें पूर्वोक्त अट्ठाईस भेदरूप मतिज्ञानके उत्पन्न होनेपर मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस ३३६ भेद होते हैं। जो इस प्रकार जानना-बहुविषयरूप अर्थमें अनिन्द्रिय और इन्द्रियके भेदसे मतिज्ञानके छह भेद होते हैं। वे ही अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणाके भेदसे प्रत्येकके चार-चार होकर चौबीस होते हैं। तथा व्यंजनरूप दिषयमें २५ स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्रके द्वारा चार अवग्रह ही होते हैं। इस प्रकार अर्थ और व्यंजनरूप बहुविषयमें मिलकर मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। इस प्रकार अर्थ व्यंजनरूप बहुविध आदिमें भी प्रत्येकके अट्ठाईस भेद होनेपर बारह विषयोंमें मतिज्ञानके भेद तीन सौ छत्तीस होते हैं। यदि एक विषयमें मतिज्ञानके भेद अट्ठाईस होते हैं, तो बारह विषयों में मंतिज्ञानके भेद कितने होते हैं ? इस प्रकार त्रैराशिक प्रमाणराशि एक, फलराशि अट्ठाईस, ३. इच्छाराशि बारह स्थापित करके फलराशि अट्ठाईस को इच्छाराशि बारहसे गुणा करके प्रमाण राशि एकसे भाग देनेपर मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥३१०॥ १. म पुद्दुत्तं विरलु । २. मरमप्पु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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