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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका a बेसदछप्पण्णंगळं संवग्गं माडिद लब्धं तृतीयपददोलु परमावधिक्षेत्रकालंग गुणकारप्रमाणमक्कु == ६५ । = २५६ । १ । ६५ = २५६ । मिते चरमदोळं देयमावल्यसंख्यात भागमक्कु ८ मी राशिगर्द्धच्छेदंगळेनितपुर्व 'दोडे संख्यातरूपहीनावलिच्छेदमात्रंगळप्पुवु १६-४ वदे तें दोडेविरलिज्ज माणराशी दिणस्सद्धच्छिदीहि संगुणिदे । अद्धच्छेदसळागा होंति समुप्पण्णरासिस्स । एंदिताव लिये बुदु परिमितासंख्यातजघन्य राशियं विरलिसि प्रतिरूपमा राशियने कोट्टु गितसंवग्गं मार्ड संजनितराशियत्युर्दारदमा परिमितासंख्यातजघन्यराश्यर्द्धच्छेदंगळ संख्यातरूपंगलदं गुणिसल्पट्ट परीता संख्यातजघन्यराशिप्रमाणमावलियर्द्धच्छेदं गळवु । १६ । – ७ । गुणिसिदोडे सव्वधारादि तद्योग्यधारिगलोळु परीतासंख्यातमध्यपतिता संख्यात राशियवकुम संदृष्टि पदिनारुं १६ इदरोळ हारभूतासंख्यातार्द्धच्छेदंगल संख्यातरूपंगळप्पुववं ४ कळेदोडे १० शेषमावल्यसंख्यात राशिगळर्द्धच्छेदंगलप्पु १६-४ । इंतु त्रैराशिकं माडल्पडुगुं प्र वि छे ८ वि छे १ । ६-४ a छे ९ । फ= | इ = ६ प २ a प्र । 2 ६५५ छे ८ ६० ई त्रैराशिक कटाक्षिसि पेदपं । देयच्छेदे a पा१ a ८ a वि छे छे ९ १६-४ यल्लब्धं तन्मात्र ३ वेदछपणानां गणने परस्परसंवर्ग संजनितराशिः तृतीयपदे परमावधिक्षेत्रकालयोर्गुणकारप्रमाणं भवति = ६५ = २५६ । प-१ | ६५ = २५६ एवं चरमेऽपि देयमावल्यसंख्येयभागः तस्य अर्धच्छेदाः भागहारार्धच्छेदन्यून भाज्यार्धच्छेदमात्रत्वात् संख्यातरूपन्यूनपरीता संख्यातमध्यमभेदमात्राः संदृष्ट्या एता- १५ वन्तः १६-४ एभिः देयार्धच्छेदैर्भक्तेन लोकार्धच्छेदराशिना पदधने-परमावधिज्ञानच रम विकल्पसंकलित सर्वधने भक्ते सति यल्लब्धं तन्मात्रलोकानां परस्परगुणने परमावधिचरमगुणकारी भवति । यद्येतावतां देयरूपावल्यसंख्येयभागानां दे परस्परगुणने लोक उत्पद्यते फ तदा एतावतां देयरूपावल्यसंख्येय ५ उससे विवक्षित पदके संकलित धनमें भाग दें। उससे जो प्रमाण आवे, उतनी जगह लोकराशिको रखकर परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, वह विवक्षित पद सम्बन्धी क्षेत्र २० या कालका गुणकार होता है। इसी प्रकार परमावधिके अन्तिम भेदमें गुणकार जानना । जैसे देय राशि चौंसठका चौथा भाग अर्थात् सोलह, उसके अर्धच्छेद चार, उसका भाग दो सौ छप्पन के अर्धच्छेद आठमें देनेपर दो लब्ध आया। उसका भाग विवक्षित पद तीनके संकलित धन छह में देनेसे तीन आया । सो तीन जगह दो सौ छप्पन रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण होता है, वही तीसरे स्थान में गुणकार जानना । इसी तरह यथार्थ में २५ देrराशि आवलीका असंख्यातवाँ भाग, उसके अर्धच्छेद आवलीके अर्धच्छेदों में से भाजक असंख्यात अर्धच्छेदों को घटानेपर जो प्रमाण रहे, उतने हैं । सो वे संख्यातहीन परीक्षासंख्यातके मध्यमभेद प्रमाण होते हैं । इनका भाग लोकराशिके अर्धच्छेदोंमें देनेपर जो प्रमाण आवे, उसका भाग परमावधिके विवक्षित भेदके संकलित धनमें देनेसे जो प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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