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________________ १० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७९३ १ १ ० ० "सर्वेपि पुद्गलाः खल्वेकेनाप्नोज्झिताश्च जीवेन । असकृदनंतकृत्वः पुद्गल+ ० १ + ० + + १ परिवर्तसंसारे।" क्षेत्रपरिवर्तनमुं स्वक्षेत्रपरिवर्तनमेंदु परक्षेत्रपरिवर्तनमें दितु द्विविधमक्कुमल्लि । स्वक्षेत्र परिवर्तनं पेळल्पडुगुं । वो दानुमोवं जीवं सूक्ष्मनिगोदजधन्यावगाहनदिदं पुट्टिदातं स्वस्थितियं १ जीविसि मृतनागि मत्तं प्रदेशोत्तरावगाहनदिदं पुट्टि इंतु द्वथादिप्रदेशोत्तरक्रमदिदं महामत्स्याव१८ गाहनपयंतंगळु संख्यातघनांगुल ६१ प्रमितावगाहन विकल्पंगळा जीवनिदमे ये नेवरं स्वीकरि. सल्पडुवुवल्लं कूडि स्वक्षेत्रपरिवर्तनमक्कुं। परक्षेत्रपरिवर्तनमेंतेंदोडे सूक्ष्मनिगोदजीवनऽपर्याप्तकं सर्वजघन्यावगाहनशरीरमनुळं लोकमध्याष्टप्रदेशंगळ तन्न शरीरमध्याष्टप्रदेशंगळं माडि पुट्टि क्षुद्रभवकालमं जीविसि मृगनागि आजीवेन मत्तमा अवगाहनदिदमरडु वारंगक्कुमंते मूरु वारंगळुमंते अत्रोपयोग्यार्यावृत्तं सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेनातोज्झिताश्च जीवेन । ह्यसकृत्त्वनन्तकृत्वा पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ १+ ० क्षेत्रपरिवर्तनमपि स्वपरभेदावेधा तत्र स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-कश्चिज्जीवः सूक्ष्मनिगोदजध+१० +०१ ०+१ न्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति १ जीवित्वा मतः पुनः प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः । एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण १८ महामत्स्यागाहनपर्यन्ताः संख्यातघनागल ६१ प्रमितावगाहनविकल्पाः तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृताः तत १५ सर्व समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति । परक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-सूक्ष्मनिगोदः अपर्याप्तकः सर्वजघन्यावगाहनशरीरः लोकमध्याष्टप्रदेशान् स्वशरीरमध्याष्टप्रदेशान् कृत्वा उत्पन्नः । क्षुद्रभवकालं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैव उपयोगी आर्याच्छन्दका अर्थ-पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारमें एक जीवने अनन्त बार सब पुद्गलोंको ग्रहण करके छोड़ दिया है। क्षेत्रपरिवर्तन भी स्व और परके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से स्वक्षेत्रपरिवर्तनको २० कहते हैं-कोई जीव सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहनासे उत्पन्न हुआ। अपनी स्थिति श्वासके अठारहवें भाग प्रमाण जीवित रहकर मर गया। पुनः एकप्रदेश अधिक उसी अवगाहनासे उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार दो आदि प्रदेश अधिक अवगाहनाके क्रमसे महामत्स्यकी अवगाहना पर्यन्त संख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहनाके विकल्प उसी जीवने जबनक धारण किये, वह सब मिलकर स्वक्षेत्र परिवर्तन होता है। २५ अब परक्षेत्र परिवर्तनको कहते हैं-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक सबसे जघन्य अवगाहनावाले शरीरके साथ लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य आठ प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। क्षुद्रभव काल तक जीकर मरा । वही पुनः उसी अवगाहनाके साथ दुबारा, तिबारा, चौबारा उत्पन्न हुआ। इस प्रकार धनांगुलके असंख्यातवें भाग बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते समस्त लोकको अपना जन्मक्षेत्र बना लेता ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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