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________________ १५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका ५५५ इंतु द्वितीयादि षट्स्थानदोळादिभूताष्टांकदिदं मुंदे उव्वंकमक्कुमादोडमेक्कंखलु अटुंकम बी नियमवचनदिदष्टांकक्कमंगलासंख्यातभागमात्रवाराऽभावमेयक्कुमेक दोडे खलुशब्दक्के नियमार्थवाचकवदिदं। सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्य वग्गस्स । बिंदस्स य संवग्गो होदित्ति जिणेहि णिदिढें ॥३३०॥ सर्वसमासो नियमाद्रूपाधिककांडकस्य वर्गस्य । वृंदस्य च संवर्गो भवतीति जिनैन्निद्दिष्टं ॥ यल्ला अष्टांकादिषड्वृद्धिगळ संयोगं रूपाधिककांडकस्य रूपाधिककांडकद, वर्गस्य वर्गद, वृंदस्य च घनद, संवर्गः संवर्गमात्रं भवति अक्कुम दितु जिनैन्निद्दिष्टं अहंदादिळिदं पेळल्पटुदिल्लि तद्युतियं माळ्प क्रममे ते दोडे अष्टांकदात्मप्रमाणमनोंदु रूपं तंदु सप्तांकद सूच्यंगुलासंख्यातभागदोळु कूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकमक्कुमदं तोरि तदात्मप्रमाणमनोदु रूपं षडंक- १० संख्ययोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकद्वयमक्कुमा वर्गरूपाधिककांडकात्मप्रमाणमं पंचांकसंख्य एवं द्वितीयवारषट्स्थाने आदिभूता'टाङ्कतोऽग्रे उर्वकोऽस्ति तथापि 'एकं खलु अटुंक' इति नियमवचनान्न तस्याङ्गलासंख्यातभागमात्रवारः, खलुशब्दस्य नियमार्थवाचकत्वात् ॥३२९॥ सर्वासां अष्टाङ्कादिषड्वृद्धीनां संयोगः रूपाधिककाण्डकस्य वर्गस्य वृन्दस्य च संवर्गमात्रो भवति इति जिनरहंदादिभिनिदिष्टं कथितम । अत्र तद्यतिः क्रियते तद्यथा अष्टाङ्कस्य आत्मप्रमाणैकरूपे सप्ताङ्गस्य सूच्यङ्गुलासंख्यातभागे युते सति रूपाधिककाण्डकं भवति तस्मिन् पुनः आत्मप्रमाणैकरूपे षडङ्कसंख्यायां काण्डकगुणितरूपाधिककाण्डकमाव्यां युते सति रूपाधिकगुण वृद्धि युक्त स्थान काण्डक अर्थात् सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र ही होते हैं। उससे नीचके डंक, पंचांक, चतरंक और उर्वक क्रमसे रूपाधिक सच्यंगलके असंख्यातवें भाग गुणित उत्तरोत्तर उर्वक पर्यन्त होते हैं अर्थात् असंख्यात गुण वृद्धिका प्रमाण सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग कहा है। उसको एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतनी बार संख्यात गुण वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातव भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी बार संख्यात भाग वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी , बार असंख्यात भाग वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे २५ गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी बार अनन्त भाग वृद्धि होती है। इस प्रकार एक पटस्थान पतित वृद्धि में पूर्वोक्त प्रमाण एक-एक वृद्धि होती है। दूसरे षट्स्थानमें आदिमें अष्टांक उससे आगे उर्वक है,अतः एक ही अष्टांकका नियम जानना। वह अंगुलके असंख्यात भाग मात्र बार नहीं होता ।।३२९॥ अष्टांक आदि छह वृद्धियोंका जोड़ एक अधिक काण्डकके वर्गका तथा घनका परस्पर- १० में गणा करनेसे जो प्रमाण हो, उतना है;ऐसा जिन भगवान्ने कहा है। यहाँ उनका जोड़ दिखाते हैं___अष्टांकके अपने प्रमाण एक रूपमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको मिलानेपर सप्तांकका प्रमाण एक अधिक काण्डक होता है। उसमें पडंककी संख्या, जो काण्डकसे गुणित एक अधिक काण्डक प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक काण्डकका वर्ग होता है। उसमें पंचांककी १० संख्याको, जो काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके वर्ग प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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