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________________ ६७६ गो० जीवकाण्डे सa ख ख । ४५००००० भा= a उत्कृष्ट विपुलमति स०१६ ख ६प जघन्य जोयण। ८.९ भव । ८१९ ८०० aaa | ६।१।प११प ९ aa स। १६ ख ६प जोयण । ७।८ भव । ७।८ ८ ० . aaa उत्कृष्ट ऋजुमति ६। ।प। १२ ००० जघन्य ॥० ० । क्षेत्र | स. १६ ख | गाउय । २।३ भव २।३ | aa द्रव्य काल भाव ॥०॥०॥ संपुण्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्वं ॥४६०॥ संपूर्ण तु समग्रं केवलमसपत्नसवभावगतं । लोकालोकवितिमिरं केवलज्ञानं मंतव्यं ॥ जीवद्रव्यद शक्तिगतज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळगेनितोळवनितुं व्यक्तिग बंदु (धु) वप्पुदे कारणमागि संपूर्ण, मोहनीयवी-तरायनिरवशेषक्षदिंदमप्रतिहतशक्तियुक्तत्वदिदमुं निश्चलत्व१५ दिदमुं समग्र# इंद्रियसहायनिरपेक्षमप्पुरिदं केवलमुं। सपत्नंगळप्प धातिचतुष्टयप्रक्षदिदं क्रम करणव्यवधानरहितमागि सकलपदार्थगतमप्पुदु कारणदिदमसपत्न, लोकालोकंगळोळ्विगततिमिरमुमितप्पुदु केवलज्ञानमदु मंतव्युं बगेयल्पडुवुदु । जीवद्रव्यस्य शक्तिगतसर्वज्ञानाविभागप्रतिच्छेदानां व्यक्तिगतत्वात्संपूर्णम् । मोहनीयवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयादप्रतिहतशक्तियुक्तत्वात् निश्चलत्वाच्च समग्रम् । इन्द्रियसहायनिरपेक्षत्वात् केवलम् । घातिचतुष्टयप्रक्षयात् २० क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन · सकलपदार्थगतत्वात् असपत्नम् । लोकालोकयोविगततिमिरं तदिदं केवलज्ञानं जीवद्रव्य के शक्तिरूप जो सब ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद हैं, वे सब व्यक्त हो जानेसे केवलज्ञान सम्पूर्ण है । मोहनीय और वीर्यान्तरायका सम्पूर्ण क्षय होनेसे केवलज्ञानकी शक्ति बेरोक और निश्चल है,इसलिए वह समय है। इन्द्रियोंकी सहायता न लेनेसे केवल है । चार घातिया कोंका अत्यन्त क्षय हो जानेसे तथा क्रम और इन्द्रियोंके व्यवधानसे रहित होनेके २५ कारण समस्त पदार्थोंको जाननेसे असपत्न है। लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाला ऐसा यह केवलज्ञान जानना ॥४६०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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