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________________ ५५२ गो. जोवकाण्डे भागमात्रंगळु संदु द्वितीयषट्स्थानक्कादिभूतमप्पऽष्टांकमोंदु पुटुगुमन्नेवर मन्नेवरेगमी क्रममरियल्पडुगु। आदिमछट्ठाणम्मि य पंच य वड्ढी हवंति सेसेसु । छठवड्ढीओ होंति है सरिसा सव्वत्थ पदसंखा ॥३२७।। ___आदिमषट्स्थाने च पंच वृद्धयो भवंति शेषेषु । षड्वृद्धयो भवंति खलु सदृशी सर्वत्र पदसंख्या ॥ इल्लि संभविसुवंतप्पऽसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानंगळोल आदिमषट्स्थाने आदौ भवमादिमं षण्णां स्थानानां समाहारः षट्स्थानं आदिम षट्स्थानमादिमषट्स्थानं तस्मिन् मोदल षट्स्थानदोळु पंच वृद्धयो भवंति पंचवृद्धिगळेयप्पुवेक दोडे चरमाटांकसंज्ञेयनुळ्ळनंतगुणवृद्धियुक्तस्थानक्क द्वितीय १० षट्स्थानकादित्व प्रतिपादनदिदं शेषेषु शेषद्वितीयादिचरमावसानमाद षट्स्थानंगळोळेल्लमष्टांका दियाद षड्वृद्धिगळप्पुवुमंतागुत्तिरलु सदृशी सर्वत्र पदसंख्या ई षट्स्थानंगळोळ संभविसुव स्थानविकल्पंगळ संख्यासादृश्यनियमक्के निमित्तमप्प सूच्यंगुलासंख्यातभागक्कवस्थितस्वरूपमुळुरदं । समस्तषट्स्थानंगळ स्थानविकल्पंगळ संख्येसमानमेयुक्कुमंतादोडे मोदल षट्स्थानदोळु पंचवृद्धि युक्तस्थानंगळप्पुदरिनष्टांकमे तु घटियिसुगुम दोडुत्तरसूत्रदोळु पेळ्दपं :१५ संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानान्यपि प्रत्येकं काण्डककाण्डकप्रमिताति नीत्वा पुनरनन्तभागासंख्यातभागवृद्धियुक्त स्थानानि प्रत्येकं काण्डकप्रमितानि नीत्वा पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानान्येव सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा द्वितीयपस्थानस्य आदिभूतमष्टाङ्गसंज्ञं भवति इत्येवं सर्वत्र षट्स्थानपतितवृद्धि क्रमो ज्ञातव्यः ॥३२६॥ अत्र संभवत्सु असंख्यातलोकमात्रेषु षट्स्थानेषु मध्ये आदिमे प्रथमे षट्स्थाने पञ्चव वृद्धयो भवन्ति, चरमस्य अष्टाङ्कसंज्ञस्य अनन्तगुणवृद्धियुक्तस्य द्वितीयषट्स्थानस्यादित्वप्रतिपादनात् । शेषेषु द्वितीयादिचरमाव२० सानेषु षट्स्थानेषु सर्वा अष्टाङ्कादयः षड्वृद्धयो भवन्ति । तथासति सदृशी सर्वत्र पदसंख्या एतेषु षट्स्थानेषु संभवति-स्थानविकल्पसंख्या सदृशा समानैव सादृश्यनियमनिमित्तस्य सूच्यगुलासंख्यातभागस्य अवस्थितस्वरूपत्वात् । तथा सति प्रथमषट्स्थाने पञ्चवृद्धियुक्तस्थानानि संभवन्ति ॥३२७॥ अष्टाङ्कः कथं न घटते इति चेहेतुमाह होनेपर पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होनेपर द्वितीय २५ पटस्थानका आदिभूत अष्टांक होता है । इस प्रकार सर्वत्र षट्स्थानपतित वृद्धि क्रम जानना ॥३२६|| __ जघन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं ,जो पर्याय समास श्रुतज्ञानके विकल्प हैं। उनमें से प्रथम षट्स्थानमें पाँच ही वृद्धियाँ होती हैं, क्योंकि अनन्त गुण वृद्धिसे युक्त जो अष्टांक संज्ञावाला अन्तिम स्थान है,उसे दूसरे षस्थानका आदि स्थान ३० कहा है। शेष दूसरेसे लेकर अन्तिम पर्यन्त सब षट्स्थानोंमें अष्टांक आदि छहों वृद्धियाँ होती है। ऐसा होनेसे इन षटस्थानों में स्थानके विकल्पोंकी संख्या समान ही है. क्योंकि सर्वत्र सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग तदवस्थ है, उसमें हीनाधिकता नहीं है। इस तरह प्रथम षट्स्थानमें पाँच वृद्धि युक्त स्थान ही होते हैं ॥३२७।। १. म सूत्रंगल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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