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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका छप्पयणीलकवोदसुहेमंबुजसंखसंणिहा वण्णे । संखेज्जासंखेज्जार अणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥४९५॥ षट्पदनोलकपोतसुहेमांबुजशंखसन्निभा वर्णे । संख्येयासंख्येया अनंतविकल्पाश्च प्रत्येकं ॥ तुंबिय, नीलरत्नद, कपोतपक्षिय, सुहेमद, अंबुजद, शंखद सन्निभंगळु यथाक्रमदिदमप्पुवु । कृष्णलेश्यादिगळु वर्णदोळु यिद्रियव्यक्तिळिदं प्रत्येकं संख्यातंगळप्पुवु। कृ १ नो १ क १ ते १ ५ ५१ शु१॥ स्कंधभेददिदं प्रत्येकमसंख्यातंगळप्पुवु । कृ a नील क ते ० प ० शु ॥ परमाणुभेददिदं प्रत्येकमनंतानंतगळप्पुवु । कृ ख नी ख क ख ते ख प ख शु ख ॥ णिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुरणरतिरिये । उत्तरदेहे छक्कं भोगे रविचंदहरिदंगा ।।४९६॥ नारकाः कृष्णाः कल्पना भावानुगता खळु त्रिसुरनरतिय॑क्षु। उत्तरदेहे षट्कं भोगे १० रविचंद्रहरितांगाः॥ नारकरल्लरुं कृष्णरुगळेयप्परु कल्पजरल्लरु भावलेश्यानुगतरप्यर। भवनत्रयदेवक्कळं मनुष्यरुं तिव्यचरुगळं उत्तरदेहंगळ देवर्कळ वैकुर्वण शरीरंगळु अवं षड्वणंगळप्पुवु यथाक्रममुत्तममध्यमजघन्यभोगभूमिजरप्प नरतिप्यंचरुगळ शरीरंगळु रविचंद्रहरिद्वर्णगळप्पुवु॥ कृष्णादिलेश्याः वर्णे षट्पद-नीलरत्न-कपोत-सुहेम-अम्बुज-शङ्खसंनिभा भवन्ति । पुनस्ता इन्द्रिय- १५ व्यक्तिभिः प्रत्येक संख्याताः कृ१ । नी । कते ।प१। शु। स्कन्धभेदेनासंख्याताः कृवानी a क ते । प श । परमाणभेदेन अनन्तानन्ताश्च भवन्ति । क ख । नी ख । क ख । ते ख । पख । शु ख ॥४९५॥ नारकाः सर्वे कृष्णा एव, कल्पजाः सर्वे स्वस्वभावलेश्यानुगा एव । भवनत्रयदेवाः मनुष्यास्तिर्यञ्चो देवविकुर्वणदेहाश्च सर्वे षड्वर्णाः । उत्तममध्यमजघन्यभोगभूमिजनरतिर्यश्चः क्रमशः रविचन्द्रद्भिद्वर्णा २. एव ॥४९६॥ वर्णके रूपमें कृष्ण आदि लेश्या भौरे, नीलम, कबूतर, स्वर्ण, कमल और शंखके समान होती हैं। अर्थात् भौंरेके समान जिनके शरीरका रंग काला है, उनके द्रव्यलेश्या कृष्ण है। नीलमके समान नील रंग वालोंकी द्रव्यलेश्या नील होती है। कबूतरके समान शरीरके वर्णवालोंकी द्रव्यलेश्या कापोत होती है। स्वर्णके समान पीत वर्ण वालोंकी द्रव्यलेश्या पीत होती है । कमलके समान शरीरके वर्णवालोंकी द्रव्यलेश्या पद्म होती है । और जिनका शरीर- " २५ का रंग शंखके समान सफेद होता है, उनकी द्रव्यलेश्या शुक्ल होती है । इन्द्रियोंके द्वारा प्रतीत होनेकी अपेक्षा प्रत्येक लेश्याके संख्यात भेद होते हैं। स्कन्धोंके भेदसे असंख्यात भेद हैं और परमाणुओंके भेदसे अनन्त भेद हैं ॥४९५॥ ___ सब नारकी कृष्णवर्ण ही होते हैं। सब कल्पवासी देव अपनी-अपनी भावलेश्याके . अनुसार ही द्रव्यलेश्यावाले होते हैं। अर्थात् जैसी उनकी भावलेश्या होती है, उसीके अनुसार उनके शरीरका वर्ण होता है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषीदेव, मनुष्य, तिर्यच और देवोंकीविक्रियासे बना शरीर ये सब छहों वर्णवाले होते हैं । उत्तम, मध्यम और जघन्य १. ब अनन्ताश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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