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________________ ९३२ गो० जीवकाण्डे अपूर्वकरणगुणस्थानं मोदलागि सिद्धपरमेष्ठिगळ्पय्यतं क्षायिकसम्यक्त्वमक्कुं:मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । सि १ ।१ । १ । ३ । ३ । ३ । ३ । १।१।१।२ । १ ।१ ।१ । १ नो इंद्रियावरणक्षयोपशममुतज्जनितबोधनमुं संजय बुदक्कुं अदनुळ्ळुदसंज्ञि एंबुदक्कुमितरेंद्रियज्ञानमनुळुदसंजिये बुदक्कुमितु संजियुमसंजियुम बेरडु प्रकारद जीवंगळाळु संज्ञिजीवं मिथ्यादृष्टि गुणस्थानं मोदल्गोंड क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंत पन्नरडु गुणस्थानंगळोळक्कुं। असंशिजीवं ५ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळेयककुं । सयोगिकेवलिभट्टारकरमयोगिकेवलिभट्टारकर नोइंद्रियेद्रियज्ञानरहितरदरिदं संज्ञिगळुमसंजिगळुमल्तु : मि। सा। मि । अ। ।प्र। अ। अ । अ । स । उ । क्षी। शरीरांगोपांग २। १ । १ । १।१।१।१।१।१।१।१।१ । नामकर्मोदयजनितशरीरवचनचित्तनोकर्मवर्गणाग्रहणमाहारमें बुदक्कं । विग्रहगतियोळु समुद्घातकेवलिगुणस्थानदोळमयोगिकेवलिगुणस्थानदोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं शरीरांगोपांगनामकर्मोदय मिल्लप्पुरिदं "कारणाभावे कार्यस्याप्यभावः एंबी न्यादिदमनाहारमक्कुमिताहारानाहारंगळु १० मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळरडुमक्कुं। सासावनगुणस्थानदोळमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं सयोग केवलिभट्टारकगुणस्थानदोळमाहारानाहारमेरडुमक्कु मुळिव मिश्रगुणस्थानं मोदलागि ओंभत्तगुणच कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टोनामेव केवलिश्रुतकेवलिद्वयश्रीपादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवेशेषक्षये भवति । तत्सम्यक्त्वं सामान्येन एकं, विशेषेण मिथ्यात्वसासादन मिश्रोपशमवेदकक्षायिकभेदात षोढा। तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं । सासादने सासादनत्वम् । मिश्रे मिश्रत्वं । असंयतादि अप्रमत्तान्तेषु उपशमवेदकक्षायिकानि अपूर्वकरणाद्युप१५ शान्तकषायान्तेषु उपशमश्रेणी वा औपशमिकक्षायिके क्षपकश्रेणावपूर्वकरणादिसिद्धपर्यन्तमेकं क्षायिकमेव । ___ नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं च संज्ञा सा अस्य अस्तीति संज्ञी। इतरेन्द्रियज्ञानोऽसंज्ञी । तत्र मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तं संज्ञी। असंज्ञी मिथ्यादष्टावेव । सयोगायोगयो।इन्द्रियेन्द्रियज्ञानाभावात् संश्यसंज्ञिव्यपदेशो नास्ति ।। शरीराङ्गोपाङ्गनामोदयजनितं शरीरवचनचित्तनोकर्मवर्गणाग्रहणमाहारः । विग्रहगतो प्रतरलोकपूरण२० हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व तो असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्योंके असंयत, देशसंयत या औपचारिक महाव्रती मानुषियोंके जो कर्मभूमिके जन्मे वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनके ही केवली श्रुतकेवलीके चरणोंके समीपमें सात प्रकृतियोंका पूर्ण क्षय होनेपर होता है । वह सम्यक्त्व सामान्यसे एक है। विशेष मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, वेदक और क्षायिकके भेदसे छह भेदरूप है। मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्व होता है। सासादनमें सासादन २५ और मिश्रमें मिश्र होता है। असंयतसे अप्रमत्तपर्यन्त उपशम, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व होते हैं। अपूर्वकरणसे उपशान्त कषाय पर्यन्त उपशमश्रेणीमें औपशमिक और क्षायिक होते हैं । क्षपकश्रेणीमें अपूर्वकरणसे लेकर तथा सिद्ध पर्यन्त क्षायिक ही होता है। . ___ नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशम और उससे होनेवाले ज्ञानको संज्ञा कहते हैं। वह जिसके हो,वह संज्ञी है। जो मनके सिवाय अन्य इन्द्रियोंसे ही जानता है। वह असंज्ञी है। मिथ्या३० दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त संज्ञी होता है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है । सयोगी और अयोगी मनसे नहीं जानते,इससे न वह संज्ञी कहे जाते हैं और न असंज्ञी। १. म स्थानादि ओभत्तु । M ~ ~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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