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________________ ५ १० १५ २० ३० ८०४ गो० जीवकाण्डे षडंशता । षण्णां समानदेशित्वे पिंडं स्यादणुमात्रकम् ॥” [ ] एंदितु पूर्वपक्षमं माडुत्तिरलु द्रव्यात्थिकनर्याददं निरंशत्वमुं पर्य्यायात्थिकनर्यादिदं षडंशतेयक्कुमे वितु परिहारं पेळल्पट्टुवु । "आद्यंतरहितं द्रव्यं विश्लेषरहितांशकं । स्कंधोपादानमत्यक्षं परमाणुं प्रचक्षते ॥" [ आद्यंतरहितं आदियुमवसानमुमिल्लद्दु द्रव्यं गुणपर्य्यायंगळमुळ्ळुदुं विश्लेषरहितांशकं बेक्य्यलिल्लद अंशमनुडं स्कंधोपादानं स्कंधक्के कारणमप्पु अध्यक्ष इंद्रियविषयमल्ल दुदुं परमाणुं प्रचक्षते परमाणु व युवक्तव्यमागि परमागमज्ञरु पेवरु । नामाधिकारं तिदुदुवु । उवजोगो वण्णचऊ लक्खणमिह जीवपोग्गलाणं तु । गदिठाणोगवट्टण किरियुवयारो दु धम्मचऊ ||५६५ ।। उपयोगो वर्णचतुष्कं लक्षणमिह जीवपुद्गलयोस्तु । गतिस्थानावगाहवर्त्तनक्रियोपकारस्तु धर्मचतुर्णां ॥ उपयोग वर्णचतुष्कसुं यथासंख्यमा गिह परमागमदोळु जीवंगळ्गं पुद्गलंगळगं लक्षणमक्कुं । तु मत्ते गतिस्थानावगाहवर्तन क्रियेगळे बुपकारंगळ तु मत्ते यथासंख्यमागि धर्माधर्माकाशकालंगळे' ब नाकं द्रव्यंगळ लक्षणमवकुं । ३५ षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता । षण्णां समानदेशित्वे पिण्डं स्यादणुमात्रकम् ॥ संत्यं, द्रव्यार्थिकनयेन निरंशत्वेऽपि परमाणोः पर्यायार्थिकनयेन षडंशत्वे दोषाभावात् । आद्यन्तरहितं द्रव्यं विश्लेषरहितांशकम् । स्कन्धोपादानमत्यक्षं परमाणुं प्रचक्षते ॥ ] ॥ ५६४ ॥ इति नामाधिकारः । उपयोगः जीवानां तु - पुनः वर्णचतुष्कं पुद्गलानां, इह परमागमे लक्षणं भवति । गतिस्थानावगाहनवर्तनक्रियाख्याः उपकाराः । तु पुनः यथासंख्यं धर्माधर्माकाशकालानां लक्षणं भवति ॥ ५६५ ॥ २५ शंका- यदि परमाणु एक साथ छह दिशामें छह परमाणुओंसे सम्बन्ध करता है, तो परमाणु छह अंशवाला सिद्ध होता है । यदि छहों समान देश वाले माने जाते हैं, तो छह परमाणुओंका पिण्ड परमाणु मात्र सिद्ध होता है ? समाधान—आपका कथन यथार्थ है । द्रव्यार्थिकन यसे यद्यपि परमाणु निरंश है किन्तु पर्यायार्थिकनय से उसके छह अंशवाला होनेमें कोई दोष नहीं है। जो द्रव्य आदि और अन्तसे रहित है, जिसके अंश कभी भी अलग नहीं होते, जो स्कन्धका उपादान कारण तथा अद्रि है, उसे परमाणु कहते हैं || ५६४ ॥ करते हैं, प्राप्त करेंगे और पहले प्राप्त कर चुके हैं; इस व्युत्पत्तिके अनुसार द्वयणुकादिमें भी पुद्गलपना घटित होता है । इस प्रकार नामाधिकार समाप्त हुआ । परमागम में जीवका लक्षण उपयोग और पुद्गलोंका लक्षण वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श कहा है । तथा यथाक्रमसे गतिरूप उपकार, स्थानरूप उपकार, अवगाहनरूप उपकार और वर्तनाक्रियारूप उपकार धर्मेंद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यका लक्षण है || ५६५॥ १. म परमागमं पेव्वुदु । २. ब सत्यं पर्या° । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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