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________________ ६७४ गो० जीवकाण्डे मनुष्यक्षेत्रद समचतुरस्रघनप्रतरप्रमितं विपुलमतिमनःपर्य्ययज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रप्रमाणमेंदु समुद्दिष्टं अनादिनिधनार्षदोळु पेळल्पटुदप्पुदे कारणमागि मानुषोत्तरपर्वताभ्यंतरविष्कभं नाल्वत्तय्दुलक्षयोजनप्रमाणमदर समचतुरस्रक्षेत्रघनप्रतरप्रमाणं कैकोळल्पडुवुदेके दोड आ मानुषोत्तरपवंतदिदं पोरगण नाल्कुकोणंगळोलिई तिय्यंचरुममररुं चितिसिदुदं विपुलमतिमनःपर्याय५ ज्ञानमरिगुमप्पुदे कारणमागि। - ४५ ल. दुगतिगभवा हु अवरं सत्तट्ठभवा हवंति उक्कस्सं । अडणवभवा हु अवरमसंखेज्जं विउलउक्कस्सं ॥४५७॥ द्वित्रिभवाः खलु जघन्यं सप्ताष्ट भवा भवंति उत्कृष्टं । अष्टनवभवाः खलु जघन्यमसंख्यातं विपुलोत्कृष्टं॥ कालं प्रति ऋजमतिमनःपर्ययज्ञानविषयजघन्यं द्वित्रिभवंगळु खलु स्फुटमागि अप्पुवु उत्कृष्टदिदं सप्तष्टभवंगळप्पुवु। विपुलमतिमनःपर्ययक्के जघन्यमष्टनवभवंगळुविषयमप्पुवु उत्कृष्टमसंख्यातसमयमप्पुदुमादोडं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमक्कु प। भवति न तु वृत्तस्य । कुतः ? यतस्तत्पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणं समचतुरस्रघनप्रतरं मनःपर्ययविषयोत्कृष्ट क्षेत्र समुद्दिष्टं ततः कारणात् तदपि कुतः ? मानुषोत्तराद्बहिश्चतुःकोणस्थिततिर्यगमराणां परचिन्तितानां १५ उत्कृष्टविपुलमतेः परिज्ञानात् ॥४५६॥ ४५ ल कालं प्रति ऋजुमतेविषयजघन्यं द्वित्रिभवाः स्युः । उत्कृष्टं सप्ताष्टभवाः स्युः । विपुलमतेविषयजघन्य अष्टनवभवाः स्युः । उत्कृष्टं पल्यासंख्यातैकभागः स्यात् ५ ॥४५७॥ मनुष्यलोकके विष्कम्भका निश्चायक है।गोलाईका नहीं । अर्थात् मनुष्यलोक तो गोलाकार है। वह नहीं लेना चाहिए। क्योंकि पैंतालीस लाख योजन प्रमाण समचतुरस्र घनप्रतर २० अर्थात् समान चौकोर घनप्रतर रूप मनापर्ययका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र कहा है। अर्थात् पैतालीस लाख योजन लम्बा उतना ही चौड़ा लेना। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वतके बाहर चारों कोनों में स्थित देवों और तियचोंके द्वारा चिन्तित अर्थको भी उत्कृष्ट विपुलमति जानता है ।।४५६।। कालकी अपेक्षा ऋजुमतिका जघन्य विषय दो-तीन भव होते हैं। और उत्कृष्ट सातआठ भव होते हैं। विपुलमतिका जघन्य विषय आठ-नौ भव होते हैं और उत्कृष्ट पल्यका २५ असंख्यातवां भाग है ॥४५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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