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________________ ५३० गो. जीवकाण्डे पतितंगळप्प वृद्धिगळप्पुवु। खलु। द्विरूपवर्गधारियोळनंतानंतवर्गस्थानगळं नडेदु जीवपुद्गलकालाकाशश्रेणियदं मेलयुमनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडेदु सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकन जघन्यज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळुत्पत्तिकथनदिदं तज्जघन्यज्ञानक्कनंतात्मकभागहारं पुट्टिसुगुं विरुद्धमल्तु । जीवाणं च य रासी असंखलोगा वरं खु संखेज्ज । __ भागगुणमि य कमसो अवढिदा होंति छट्ठाणा ॥३२४॥ जीवानां च च राशिसंख्यातलोका वरं खलु संख्येयं । भागगुणयोश्च क्रमशोऽवस्थिता भवंति षट्स्थाने ॥ - इल्लियनंतभागादिषट्स्थानंगळोळ क्रमदि ई षट्संदृष्टिगळप्पुवुमवुमवस्थितंगळु प्रतिनियतंगळुमप्पुववे ते दोडे अनंतम बुदु भागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रतिनियत१० सर्वजीवराशियेयक्कुं। १६ । असंख्यातभागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रति नियतमसंख्यातलोकमेयक्कं =a । संख्यातभागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रतिनियतोत्कृष्टसंख्यातमेयक्कुं। उब्बंक्कं चउरंक्क पणछस्सत्तंकं अट्ठ अंकं च । __ छठवड्ढीणं सण्णा कमसो संदिट्टिकरणढें ॥३२५।। १५ उर्वकश्चतुरंकः पंचषट्सप्तांकाः । अष्टांकश्च षड्वृद्धोनां संज्ञाः क्रमशः संदृष्टिकरणात्थं ॥ संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिश्चेति षट्स्थानपतिता वृद्धयो भवन्ति खल । द्विरूपवर्गधारायां अनन्तानन्तानि वर्गस्थानानि अतीत्यातीत्य उत्पन्नानां जीवपुद्गलकालाकाशश्रेणीनां उपर्यपि अनन्तानन्तवर्गस्थानानि अतीत्य सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जघन्यज्ञानाविभाग-प्रतिच्छेदानामुत्पत्तिकथनात् तज्जघन्यज्ञानस्यानन्तात्मकभागहारः सुघटन न विरुध्यते ॥३२३।। ___ अत्र अनन्तभागादिषु षट्सु स्थानेषु क्रमेण एताः षट् संदृष्टयः अवस्थिताः प्रतिनियता भवन्ति । तद्यथा-अनन्तभागवृद्धी गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः सर्वजीवराशिरेव १६ । असंख्यात. भागवृद्धौ गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः असंख्यातलोक एव = a। संख्यातभागवृद्धौ गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः उत्कृष्टसंख्यात एव १५ ॥३२४॥ असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुण२५ वृद्धि ये षट्स्थानपतित वृद्धियाँ होती हैं। द्विरूपवर्गधारामें अनन्तानन्त वर्गस्थान जा-जाकर जीवराशि, पुद्गलराशि, कालके समयोंको राशि तथा आकाश श्रेणी उत्पन्न होती है। उनके भी ऊपर अनन्तानन्त वर्गस्थान जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त कके जघन्य ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं ऐसा कथन है। अतः उसके जघन्य ज्ञानका भागहार अनन्तरूप सुघटित होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है ॥३२३॥ ३० यहाँ अनन्तभागादिरूप छह स्थानोंमें क्रमसे ये छह संदृष्टियाँ अवस्थित हैं जो इस प्रकार हैं-अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत सवे जीवराशि प्रमाण है। असंख्यात भागवृद्धि और गुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत असंख्यात लोक ही है। संख्यातभागवृद्धि और गुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत उत्कृष्ट संख्यात ही है ॥३२४॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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