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________________ ५६७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मात्रवारषट्स्थानंगळ आवुदोंदु चरमषट्स्थानमदर चरमोम्वंकवृद्धियुक्तसर्बोत्कृष्टपव्यसमासज्ञानमष्टांकदिदमोम्म गुणिसिदुदरोरन्नमप्पुदक्षिरज्ञानमष्टांकवृद्धियुक्तस्थानमें बुदर्थमदें तप्पु दरोडे रूपोनेकट्ठमात्राऽपुनरुक्ताक्षरसंदर्भरूप द्वादशांगश्रुतस्कंधजनितार्थज्ञानं श्रुतकेवलमेंदु पेळल्पदुदु । के। ई श्रुतकेवलज्ञानं रूपोनेकटुमात्राऽपुनरुक्ताक्षरप्रमादिदं भागिसुत्तिरलु अाक्षररूपमप्पेकाक्षरप्रमाणमक्कु के मो याक्षरमं सर्वोत्कृष्टपर्यायसमासज्ञानमप्प चरमोव्वंकदिद भागिसुत्तिरलु ५ १८चरमोवंकम गुणिसिदष्टांकप्रमाणमक्कु मदु कारणदिंद मिन्ना अक्षरश्रुतज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं चरमोवंकापहृत अाक्षररूपाष्टांकदिदं गुण्यरूपमप्प चरमोव्वंकमं गुणिसुत्तिरलु तु पुनः अर्थाक्षरज्ञानं भवतीति अक्षरज्ञानं युक्ति युक्तमप्पुबेदु जिनैन्निद्दिष्टं जिनोक्तमक्कुमिदंत्यदीपकमल्ला चतुरंकादियष्टांकावसानमाद षट्स्थानंगळ भागवृद्धियुक्तस्थानंगलं गुणवृद्धियुक्तस्थानंगळू तंतम्म पिंदणानंतरोव्वंकवृद्धियुक्तस्थानमं भागिसियं गुणिसियुं यथासंख्यं चतुरंकपंचांकंगळ षट्सप्ताष्टांकंगळ १० ___ असंख्यातलोकमात्रवारषट्स्थानेषु यच्चरमं षट्स्थानं तस्य चरमोर्वङ्करूपवृद्धियुक्तसर्वोत्कृष्टपर्यायसमासज्ञानं अष्टाङ्कन एकवारं गुणिते समुत्पन्न अर्थाक्षरज्ञानं अष्टाङ्कवृद्धि युक्तस्थानमित्यर्थः । तत् कियद् ? रूपोनकट्ठमात्राऽपुनरुक्ताक्षरसन्दर्भरूपद्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धजनितार्थज्ञानं श्रुतकेवलमित्युच्यत । के । इदं श्रुतकेवलज्ञानं रूपोनैकट्ठमात्रापुनरुक्ताक्षरप्रमाणेन भक्तं सत् अर्थाक्षररूपमेकाक्षरप्रमाणं भवति के इदमर्याक्षरं सर्वोत्कृष्ट १८ पर्यायसमासज्ञानरूपोर्वकेन भक्तं सच्चरमोर्वगुणिताष्टाङ्कप्रमाणं भवति ततः कारणादिदानीं तदर्थाक्षरश्रुत- १५ ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं चरमोर्वश्रापहृताक्षररूपाष्टाङ्ग्रेन गुण्यरूपे चरमोर्वके गुणिते तु-पुनः अर्थाक्षरज्ञानं युक्तियुक्तं भवति इति जिननिर्दिष्टम् । इदमन्त्यदीपकं इति सर्वाण्यपि चतुरङ्काद्यष्टाङ्कावसानानि षट्स्थानानां भागवृद्धियुक्तस्थानानि गुणवृद्धियुक्तस्थानानि च स्वस्वपूर्वानन्तरोर्वङ्कवृद्धियुक्तस्थानेन भक्त्वा पुनस्तेनैव गुणयित्वा क्षर श्रुत ज्ञान होता है । पहले जो अष्टांकका प्रमाण जीवराशि मात्र गुणा कहा है,उससे यहाँ जो अष्टांक है,उसका प्रमाण वह नहीं है विलक्षण है,यह कहते हैं २० ____असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में जो अन्तिम षट्स्थान है,उसके अन्तिम उर्वक रूप वृद्धिसे युक्त सर्वोत्कृष्ट पर्यायसमास ज्ञानको एक बार अष्टांकसे गुणा करनेपर अर्थाक्षर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इससे उसे अष्टांक वृद्धि युक्त स्थान कहते हैं। उस अष्टांकका कितना प्रमाण है,यह बतलाते हैं एक कम एकही मात्र अपुनरुक्त अक्षरोंकी रचना रूप द्वादशांग श्रुतस्कन्धसे उत्पन्न हुए ज्ञानको श्रुत केवलज्ञान कहते हैं। इस त केवल ज्ञानको एक २५ कम एकट्ठी मात्र अपुनरुक्त अक्षरोंके प्रमाणसे भाग देनेपर अर्थाक्षर रूप एक अक्षरका प्रमाण होता है। इस अर्थाक्षर में सबसे उत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान रूप उर्वकसे भाग देनेपर अन्तिम उवकके गुणकार रूप अष्टांकका प्रमाण होता है । अर्थात् अर्थाक्षर ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंका जितना प्रमाण है, उसमें सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञानके भेद रूप उर्वकके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणका भाग देनेपर जितना प्रमाण आता है,वही यहाँ अष्टांकका प्रमाण है। इस कारणसे अब उस अक्षर श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो अन्तिम उर्वक है,उससे भाजित अक्षर रूप अष्टांकसे गुण्य रूप अन्तिम उर्वकमें गुणा करने पर अर्थाक्षर ज्ञान होता है,यह युक्तियुक्त है। ऐसा जिनदेवने कहा है । यह कथन अन्त्यदीपक अर्थात् अन्तमें रखे हुए दीपक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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