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________________ ७५७ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सत्तासीदिचतुस्सदसहस्सतिसीदिलक्खउणवीसं । चउवीसधियं कोडीसहस्सगुणिदं तु जगपदरं ॥ सट्ठीसत्तसएहिं णवयसहस्सेगलक्खभजिवं तु । सव्वं वादारुद्धं गुणि भणिदं समासेण ॥ -त्रिलोक. १३९-१४० गा.। एंदी सूत्रद्वर्याददं पेळपट्ट सर्ववातावरुद्धक्षेत्रयुतियं = १०।२४१९८३४८७ सव्वलोका. १०१९७२० संख्यातेकभागमं = १ कळदुळिद सर्वलोकमेकजीवप्रतिबद्धप्रतरसमुद्घातक्षेत्रमक्कु = ,- लोकपूरणसमुद्घातदोळमेकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रमं सर्वलोकमक्कु = । मिल्लि आरोह a a शतचत्वारिंशत्सूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरमुत्तराभिमुखासीनकवाटसमुद्घातक्षेत्रं भवति = सू २ । १४४० प्रतरसमुद्घातस्य बहिर्वातत्रयाभ्यन्तरे सर्वलोके व्याप्तत्वात् तद्वातक्षेत्रफलेन लोकासंख्यातकभागेन ।१ ऊनं लोकमात्रमेकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रं भवति । लोकपूरणसमुद्घाते एकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रं सर्वलोको भवति=अत्र ।। अधोलोकके नीचे सात राजू चौड़ा है। क्रमसे घटते-घटते मध्यलोकमें एक राजू चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल निकालनेके लिए करणसूत्रके अनुसार मुख एक राजू, भूमि सात राजू दोनोंको जोड़नेपर आठ हुए। उसका आधा चारको अधोलोककी ऊंचाई सातसे गुणा करनेपर अट्ठाईस राजू अधोलोकका प्रतररूप क्षेत्रफल होता है। मध्यलोकमें एक राजू चौड़ा है । वहाँसे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मस्वर्गके निकट पाँच राजू चौड़ा है । सो यहाँ मुख एक राजू , भूमि पाँच राजू । दोनोंको जोड़नेपर छह हुए। उसका आधा तीनसे मध्य लोकसे ब्रह्मस्वर्ग तक की ऊँचाई साढ़े तीन राजूसे गुणा करनेपर आधे ऊर्ध्व लोकका क्षेत्रफल साढ़े दस राजू होता है । इतना ही क्षेत्रफल ऊपरके आधे ऊर्ध्वलोकका होता है । इसमें अधोलोकका फल मिलानेपर जगत्प्रतर होता है। बारह अंगुल प्रमाण उत्तर-दक्षिण दिशामें ऊँचा है। सो जगत्प्रतरको बारह सूच्यंगुलसे गुणा करनेपर एक जीव-सम्बन्धी क्षेत्र बारह अंगुल गुणित जगत्प्रतर प्रमाण होता है । इसको चालीससे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी अंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख कपाट समुद्धातका क्षेत्र होता है। स्थितमें ऊंचाई बारह अंगुल कही, उपविष्टमें (बैठनेपर) उससे तिगुणी छत्तीस अंगुल ऊँचाई होती है। अतः उक्त प्रमाणको तीनसे गुणा करनेपर एक हजार चार सौ चालीस सूच्यंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख बैठे हुए कपाट समुद्धातसम्बन्धी क्षेत्र होता है। प्रतरसमुद्धातमें तीन वातवलयको छोड़कर सर्वलोकमें प्रदेश व्याप्त होते हैं । सो तीन वातवलयका क्षेत्रफल लोकका असंख्यातवाँ भाग है। इसे लोकमें घटानेपर जो शेष रहे, उतना एक जीव सम्बन्धी १. ब. मुखस्थितक । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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