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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६१५ शास्त्रं मुनिजनंगलाचरण गोचारविधियं पिंडशुद्धिलक्षणमं वणसुतु । उत्तराण्यधीयंते पठ्यन्तेऽस्मिन्नित्युत्तराध्ययनं । ई उत्तराध्ययनशास्त्रं चतुव्विधोपसग्गंगळ द्वाविंशतिपरीषहंगळ सहनविधानमं तत्फलमुमं यितु प्रश्नमादोडितुतरमे दितुत्तर विधानमं वणिसुगुं । कल्प्यं योग्यं व्यवह्रियते अनुष्ठीयतेऽस्मिन्निति अनेनेति वा कल्प्यव्यवहारः । ई कल्प्यव्यवहारशास्त्रं साधुगळ योग्यानुष्ठानविधान अयोग्यसेवेयो प्रायश्चित्तमुमं वणिसुगं । कल्प्यं चाकल्यं च कल्प्या कल्प्यं तद्वर्ण्यतेऽस्मि - निति कल्पयाकल्प्यं । ई कल्पयाकल्प्यशास्त्रं द्रव्यक्षेत्रकाल भावंगळनाश्रयिसि मुनिगलिंगदु कल्प्य - मिदकल्प्य योग्यायोग्यविभागमं वर्णिसुगं । महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यं । ई महाकल्प्यशास्त्रं जिनकल्पसाधुगळ उत्कृष्ट संहननादिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालभाववत्तिगळगे योग्यमप्प त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानमं स्थविरकल्परुगळ दीक्षाशिक्षागणपोषणात्म संस्कार सल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषमुमं वर्णिसुगुं । पुंडरीक- १० में शास्त्रं भावनव्यंतरज्योतिष्क कल्पवासिविमानं गळोत्पत्ति कारणदानपूजातपश्चरणाकामनिर्ज्ज दश वैकालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति दशवैकालिकं तच्च मुनिजनानां आचरणगोचरविधि पिण्डशुद्धिलक्षणं च वर्णयति । उत्तराणि अधीयन्ते पठ्यन्ते अस्मिन्निति उत्तराध्ययनं तच्च चतुर्विधोपसर्गाणां द्वाविंशतिपरीषहाणां च सहनविधानं तत्फलं एवं प्रश्ने एवमुत्तरमित्युत्तरविधानं च वर्णयति । कल्प्यं योग्यं व्यवह्रियते अनुष्ठीयतेऽस्मिन्ननेनेति वा कल्प्य व्यवहारः, स च साधूनां योग्यानुष्ठानविधानं अयोग्यसेवायां प्रायश्चित्तं च वर्णयति । १५ कल्प्यं चाकल्त्यं च कल्प्य कल्प्यं तद्वर्ण्यते अस्मिन्निति कल्प्याकल्प्यम् । तच्च द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य मुनीनामिदं कल्प्यं योग्यं इदमकल्पयं अयोग्यमिति विभागं वर्णयति । महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यं शास्त्रं तच्च जिनकल्पसाधूनां उत्कृष्टसंहननादिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालभाववर्तिनां योग्यं त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानं स्थविरकल्पानां दीक्षाशिक्षा गणपोषणात्म संस्कार सल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराघनाविशेषं च वर्णयति । पुण्डरीकं नाम शास्त्रं भावनव्यन्त रज्योतिष्क कल्पवासिविमानेषु उत्पत्तिकारणदानपूजातपश्चरणाकामनिर्जरासम्यक्त्वसंयममादिविधानं तत्तदुपपादस्थान वैभव विशेषं च वर्णयति । महच्च तत्पुण्डरीकं तत्महापुण्डरीकं शास्त्रं ܘܢ बार सिर नमाना, बारह आवर्त आदि रूप नित्य नैमित्तिक क्रिया- विधानका वर्णन होता है । विशिष्ट कालोंको विकाल कहते हैं, उनमें होनेको वैकालिक कहते हैं । जिसमें दस वैकालिकों का वर्णन हो, वह दशवैकालिक है । उसमें मुनियोंका आचार, गोचरीकी विधि और भोजन शुद्धिका लक्षण कहा गया है। जिसमें उत्तरोंका अध्ययन हो, वह उत्तराध्ययन २५ है । उसमें चार प्रकार के उपसर्गों और बाईस परीषहोंके सहने का विधान, उनका फल तथा इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर इस प्रकार होता है, इसका कथन होता है। जो कल्प्य अर्थात् योग्यके व्यवहारका कथन करता है, वह कल्प्यव्यवहार है । उसमें साधुओंके योग्य अनुष्ठान के विधानका और अयोग्यका सेवन होनेके प्रायश्चित्तका कथन होता है । जिसमें कल्प्य और अकल्पयका कथन हो, वह कल्प्याकल्प्य है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रय से यह ३० मुनियोंके योग्य और यह अयोग्य है; ऐसा कथन करता है । महान् पुरुषोंका कल्प्य जिसमें हो, वह महाकल्प्य शास्त्र है । उसमें जिनकल्पी साधुओंके उत्कृष्ट, संहनन आदि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको लेकर त्रिकाल योग आदि अनुष्ठानका तथा स्थविर कल्पी साधुओंकी दीक्षा, शिक्षा, गणका पोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना, उत्तम स्थानगत उत्कृष्ट आराधना विशेषका कथन होता है। पुण्डरीक नामक शास्त्र भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्प- ३५ वासी देवोंके विमानों में उत्पत्ति के कारण दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यक्त्व, संयम आदिका विधान तथा उस उस उपपाद स्थानके वैभव विशेषको कहता है । महान् For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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