SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ गो० जीवकाण्डे चतुस्त्रिशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्यपरमौदारिकदिव्यदेहसमवसरणसभाधर्मोपदेशनादितीर्थकरत्वमहिमय स्तुतियु चतुविशतिस्तवनमें बुदु । तत्प्रतिपादकशास्त्रमुं चतुविशतिस्तवनमेंदु पेळल्पदुदु । ततः परं एकतीर्थकरालंबनचैत्यचैत्यालयादिस्तुतियं वंदनये बुदु तत्प्रतिपादकशास्त्रमुं वंदनयद पेळल्पदु। प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते इनेनेति प्रतिक्रमणं । दैवसिक रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिकेापथिकोत्तमार्थभेददि सप्तविधमकुं। भरतादिक्षेत्रमं दुःषमादिकालमं षट्संहननसमन्वितस्थिरास्थिरादिपुरुषभेदंगळुमनायिसि तत्प्रतिपादकमप्प शास्त्रं प्रतिक्रमण बुदक्कुं। विनयः प्रयोजनमस्येति वैनयिकमेंदु ज्ञानदर्शनचारित्रतपउपचारविषमप्प पंचविधविनयविधानमं पेळगु । कृतेः क्रियायाः कर्म विधानमस्मिन् वर्ण्यत इति कृतिकर्म। ई कृतिकर्मशास्त्रमर्हत्सिद्धा१० चार्यबहश्रुतसाधुगळमोदलाद नवदेवतावंदनानिमित्तमं आत्माधीनता प्रादक्षिण्य त्रिवारच्यवनति चतुःशिरोद्वादशावर्त्तादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधान वणिसुगुं। विशिष्टाः कालाः विकालाः तेषु भवानि वैकालिकानि । दशवैकालिकानि वन्तिस्मिन्निति दशवकालिकं। ई दशवैकालिक नामस्थापनाद्रव्यभावानाश्रित्य पञ्चमहाकल्याणचतुस्त्रिशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्यपरमौदारिकदिव्यदेहसमवसरणसभाधर्मोपदेशनादितीर्थकरत्वमहिमस्तुतिः चतुर्विशतिस्तवः तस्य प्रतिपादकं शास्त्रं वा चतुर्विशतिस्तव इत्युच्यते । तस्मात्परं एकतीर्थकरालम्बना चैत्यचैत्यालयादिस्तुतिः वन्दना तत्प्रतिपादकं शास्त्रं वा वन्दना इत्युच्यते । प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदेवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं तच्च दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकर्यापथिकौत्तमाथिकभेदात्सप्तविधं, भरतादिक्षेत्र दुःपमादिकालं षट्संहननसमन्वितस्थिरास्थिरादिपरुषभेदश्च आश्रित्य तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक्रमणम् । विनयः प्रयोजनमस्येति वैनयिकं तच्च ज्ञानदर्शनचारित्र तपउपचारविषयं पञ्चविधविनयविधानं कथयति । कृतेः क्रियायाः कर्म विधानं अस्मिन वर्ण्यते इति कृतिकर्म । २० तच्च अर्हत्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्तमात्माधीनताप्रादक्षिण्यत्रिवारत्रिनवतिचतुःशिरो - द्वादशावादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधानं च वर्णयति । विशिष्टाः काला विकालास्तेषु भवानि वैकालिकानि यिक शास्त्रमें उपयुक्त उसका ज्ञाता, अथवा सामाधिक पर्यायरूप परिणत व्यक्ति भावसामायिक है । उस-उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरोंके नाम, स्थापना, द्रव्य और भावको लेकर महाकल्याणक, चौंतीस अतिशय, आठ महाप्रातिहार्य, परम औदारिक दिव्य शरीर, सम२५ वसरण सभा, धर्मोपदेशना आदिके द्वार, तीर्थकरकी महिमाका स्तवन चतुर्विंशतिस्तव है। अथवा उसका कथन करनेवाला शास्त्र चतुर्विंशतिस्तव कहा जाता है। उसके पश्चात् एक तीर्थकरको लेकर चैत्य-चैत्यालय आदिकी स्तुति वन्दना है। अथवा उसका प्रतिपादक शास्त्र वन्दना कहलाता है। जिसके द्वारा 'प्रतिक्रम्यते' अर्थात् प्रमादसे किये हुए दैवसिक आदि दोषोंका विशोधन किया जाता है,वह प्रतिक्रमण है । वह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, ३० चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और पारमार्थिकके भेदसे सात प्रकारका है। भरत आदि क्षेत्र, दुषमादि काल, छह संहननोंसे युक्त स्थिर-अस्थिर आदि पुरुषोंके भेदोंको लेकर प्रतिक्रमणका कथन करनेवाला शास्त्र भी प्रतिक्रमण है।- विनय जिसका प्रयोजन है, वह वैनयिक है । वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचारके भेदसे पाँच प्रकारकी विनयका कथन करता है। जिसमें कृति अर्थात् क्रियाकर्मका विधान कहा जाता है, वह क्रियाकर्म ३५ है। उसमें अहेन्त, सिद्ध-आचार्य, बहुश्रुत (उपाध्याय), साधु आदि नौ देवताओंकी वन्दनाके निमित्त आत्माधीनता (अपने अधीन होना), तीन बार प्रदक्षिणा, तीन बार नमस्कार, चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy