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________________ ९३४ गो० जीवकाण्डे गुणस्थानदोळु मतिश्रुतावधिज्ञानंगळु चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनंगळुमितारुमुपयोगंगळप्पुवु । देशसंयत. गुणस्थानदोळमसंयतंगे पेन्दतारुमुपयोगंगळप्पुवु । प्रमत्तगुणस्थानदोळु मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानंगळं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनमुर्मितुपयोगसप्तकमुमक्कुमंत अप्रमत्तगुणस्थानादिक्षीणकषायपर्यंतं प्रत्येकमुपयोगसप्तकमक्कुं। सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळु मयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थान५ दोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं केवलज्ञानोपयोगमुं केवलदर्शनोपयोगमुमरडं युगपत्संभविसुगु: मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । सि । ५। ५। ६ । ६ । ६ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । २ । २। २ । इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुभूमंडलाचार्य्यमहावादवादोश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रत्तिश्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्ति - श्रीपाद दपंकजरजोरंजितललाटपट श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळु ओघादेशंगळोळु विशतिप्ररूपणाधिकारं प्ररूपितमाय्यतु ॥ केवलदर्शनभेदाच्चतुर्धा । तत्र मिथ्यादृष्टिसासादनयोः कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानचक्षुरचक्षुर्दर्शनाख्याः पञ्च । मिश्रे तावधिज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनाख्याः मिश्राः षट् । असंयतदेशसंयतयोः त एव षड्मिश्राः। प्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु त एव मनःपर्ययेण सह सप्त । सयोगे अयोगे सिद्धे च केवलज्ञानदर्शनाख्यौ द्वौ ॥७०५॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विशतिप्ररूपणासु ओघादेशयोविंशतिप्ररूपणानिरूपणानामै कविंशोऽधिकारः ॥२१॥ १५ हैं, क्योंकि वे ज्ञेय है। जैसे अन्धकार ज्ञानका कारण नहीं है। वह उपयोग ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकार है। उनमें ज्ञानोपयोग कुमति, कुश्रुत, विभंग, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे आठ प्रकारका है। दर्शनोपयोग चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनके भेदसे चार प्रकारका है। मिथ्यादृष्टि और सासादनमें कुमति, कुश्रुत, विभंगज्ञान और चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं। मिश्र गुणस्थानमें, मति, श्रुत, अवधिज्ञान और चक्षु, अचक्षु अवधिदर्शन ये छह मिले हुए सम्यमिथ्यात्वरूप होते हैं। असंयत और देशसंयतमें वे ही छह उपयोग सम्यकप होते हैं। प्रमत्तसे क्षीणकषाय पर्यन्त वे ही मनःपर्ययके साथ मिलकर सात उपयोग होते हैं । सयोगो अयोगो, और सिद्धोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन दो उपयोग होते हैं ।।७०५।। २० २५ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक माषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से ओघादेशमार्गणा प्ररूपणा नामक इक्कीसवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥२१॥ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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