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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कारोपयोग; बुदक्कुं। सर्वे जीवाः सर्वजीवंगळु तल्लक्षणंगळे ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणंगळेयप्पुवुमेके दोडे लक्षणक्के अव्याप्तियुमतिव्याप्पियुमसंभवियुमें बी दोषत्रयरहितत्वदिदं । मदिसुदओहिमणेहि य सगसगविसये विसेसविण्णाणं । अंतोमुत्तकालो उवजोगो सो दु सायारो ॥६७४॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायैश्च स्वस्वविषये विशेषविज्ञानमंतर्मुहूर्तकाल उपयोगःस तु साकारः॥ ५ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानंळदं तंतम्मविषयदोलु विशेषविज्ञानमंतर्मुहतकालमर्थग्रहणव्यापारलक्षणमुपयोगमक्कुमदु तु मत्ते साकारोपयोगमे बुदक्कुं।। इंदियमणोहिणा वा अढे अविसेसिदूण जं गहणं । अंतोमुहुत्तकालो उवजोगो सो अणायारो ॥६७५॥ इंद्रियमनोभ्यां अवधिना वार्थानविशेषित्वा यद्ग्रहणमंतर्मुहर्तकाल उपयोगः सोऽनाकारः॥ चक्षुरिंद्रियदिदमुं मनमचक्षुरिद्रियमप्पुरिदमचक्षुद्देर्शनदिदममवधिदर्शनदिदमुं वा शब्दमुं समुच्चयात्मक्कं । जीवाद्यत्थंगळं विकल्पिसद निर्दिवकल्पदिदमावुदोंदु ग्रहणमंदतर्मुहर्त्तकालं सामान्यार्थग्रहणव्यापारलक्षणमुपयोगमदनाकारोपयोगमें बुदक्कुं॥ अनंतरंमुपयोगाधिकारदोळ जीवसंख्येयं पेळ्दपं । णाणुवजोगजुदाणं परिमाणं णाणमग्गणं व हवे । दंसणुवजोगियोणं दंसणमग्गणपउत्तकमो ॥६७६॥ ज्ञानोपयोगयुतानां परिमाणं ज्ञानमार्गणायामिव भवेत् । दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणाप्रोक्तक्रमः॥ वधिकेवलदर्शनानि अनाकारोपयोगः। सर्वे जीवाः तज्ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा एव तल्लक्षणस्याव्याप्त्यतिव्याप्त्यसंभवदोषाभावात् ॥६७३॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानः स्वस्वविषये विशेषविज्ञानं अन्तर्महर्तकालं अर्थग्रहणव्यापारलक्षणं उपयोगः, स तु साकारोपयोगो नाम ॥६७४॥ _ चक्षुर्दर्शनेन वा शेषेन्द्रियर्मनसा च इत्यचक्षुर्दर्शनेन वा अवधिदर्शनेन वा यज्जीवाद्यर्थान् अविशेषित्वा निर्विकल्पेन ग्रहणं सोऽन्तर्मुहूर्तकालः अनाकारोपयोगो नाम ॥६७५।। अथात्र जीवसंख्यामाहतीन अज्ञान साकार उपयोग हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये २५ अनाकार उपयोग हैं। सब जीव ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणवाले हैं। जीवके इस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोष नहीं है ॥६७३॥ ___मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंके द्वारा अपने-अपने विषयमें जो विशेष ज्ञान होता है । अन्तर्मुहूर्तकालको लिये हुए अर्थको ग्रहण करने रूप व्यापार जिसका लक्षण है,वह उपयोग साकार उपयोग है ॥६७४।। चक्षुदर्शन अथवा शेष इन्द्रिय और मनरूप अचक्षुदर्शन, अथवा अवधि दर्शनके " द्वारा जीवादि पदार्थोंका विशेष न करके जो निर्विकल्प रूपसे ग्रहण होता है,वह अनाकार उपयोग है। उसका काल भी अन्तमुहूर्त है ॥६७५॥ इनमें जीव संख्या कहते हैं१.°ण व उ। मु.। २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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