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________________ ८६६ गो० जीवकाण्डे सयोगिजिनरुगळसंख्ये लक्षाष्टकमुमष्टानवतिसहस्रंगळु द्वयुत्तरपंचशतप्रमितमक्कु । ८९८५०२ । मिनिबरं सर्वदा वंदिसुर्वे । इल्लि निरंतर अष्टसमयंगळोळु संचिसल्पट्ट सयोगजिनरुगळाचाऱ्यांतरापेक्षयिदं सिद्धांतवाक्यदोळु "छसु सुद्धसमयेसु तिणि तिण्णि जीवा केवळमुप्पाय यंति । दोसु समयेसु दोद्दो जीवा केवळमुप्पाययंति एवमट्टसमयसंचिदजीवा बावीसा हवंति" ५ यदितु पेळल्पट्टवारु समयंगळोळु मूरु मूरुमरडु समयंगळोळ्यरडेरडागलु जिनरुगळं मोक्षगामि गळुमरुदिंगळ मेळेदु समयंगळोनिबरप्परबी विशेषकथनदोळु त्रैराशिकषट्कमक्कुमदेतें दोडे संदृष्टि :। फ का ८ । के-८९८५०२लब्ध मिश्रकाल ८ लब्ध का ४०८४१०६ प्रका८ फस८.इका ४०८४१८ लब्ध समयाशुद्धा ३२६७२८ फ के २२ इस ३२६७२८ ॥ लब्ध केवलिन : लब्ध के ८९८५०२ फ के ४४ । इस ३२६७२८ । लब्ध ८९८५०२ ६ प्रस८ प्रस८ फके८८ इस३२६७२८ २।२ प्रस८ फ के १७६ इस ३२६७२८ शरा२ लब्ध के ८९८५०२ लब्ध के ८९८५०२ सयोगिजिनसंख्या अष्टलक्षाष्टनवतिसहस्रद्वय त्तरपञ्चशतानि ८, ९८, ५०२ तान् सदा वन्दे । अत्र १५ निरन्तराष्टसमयेषु संचितसयोगिजिनाः आचार्यान्तरापेक्षया सिद्धान्तवाक्ये-वसुसुद्धसमयेसु तिण्णि तिग्णि जीवा केवलमुप्पाययन्ति, दोसु समयेसु दो दो जीवा केवलमुप्पाययन्ति एवमट्ठसमयसंचिदजीवा वावीसा हवन्तीति विशेषकथने त्रैराशिकषट्कम् । तद्यथा-प्र के २२ । फ का ६ । इ के ८, ९८, ५०२ । ल का ४०८४१, ६ । पुनः प्र का ६ । फ स ८ । इ का ४०८४१, ६ । ल स ३, २६, ७२८ । पुनः प्र स ८ । फ के २२ । इ ३, सयोगी जिनोंकी संख्या आठ लाख अट्टानबे हजार पाँच सौ दो है,उन्हें सदा नमस्कार २० करता हूँ। यहाँ निरन्तर आठ समयोंमें संचित सयोगि जिनोंको संख्या अन्य आचार्यकी अपेक्षा सिद्धान्तमें इस प्रकार कही है-छह शुद्ध समयोंमें तीन-तीन जीव केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं और दो समयोंमें दो-दो जीव केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार आठ समयोंमें संचित जीव बाईस होते हैं । यहाँ विशेष कथन छह त्रैराशिकोंके द्वारा करते हैं १. यदि बाईस केवली छह मास आठ समयमें होते हैं, तो आठ लाख अट्ठानबे हजार पाँच सौ दो केवली कितने कालमें होंगे; ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि २२ केवली, फलराशि छह मास आठ समयकाल, इच्छाराशि आठ लाख अट्रानबे हजार पाँच सौ दो केवली। सो प्रमाणका भाग इच्छाराशिमें देनेसे चालीस हजार आठ सौ इकतालीस आये। इस संख्याको छह मास आठ समयसे गुणा करनेपर कालका प्रमाण आता है। २. छह मास २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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