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________________ ९१२ गो० जीवकाण्डे संयतमुमक्कुमल्लि संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमो देयक्कुं। सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमंगळेरडं प्रत्येकं प्रमत्त संयतगुणस्थानमादियागऽनिवृत्तिकरणगुणस्थानपर्यंतं नाल्डं नाल्कं गुणस्थानंगळप्पुवल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमुं आहारकापर्याप्तजीवसमासमितेरडेरडु जीवसमासं गळप्पुवु । परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्तसंयतरोळमप्रमत्तसंयतरोळमक्कुमल्लि संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्त५ जीवपमासमोदे यक्कुमेके दोडे परिहारविशुद्धिसंयमऋद्धियुमाहारकऋद्धियुमोवनोळे संभविस वप्पुरिदं । सूक्ष्मसांपरायसंयमं सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळेयक्कुमल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमो देयकुं। यथाख्यातचारित्रमुपशांतकषायगुणस्थानवोळं क्षीणकषायगुणस्थानवोळं सयोगिकेवलिगुणस्थानदोळमयोगिकेवलिगुणस्थानदोमितु नाल्कुं गुणस्थानंगळोळमक्कुमल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमुं समुद्घातकेवलिय अपर्याप्तजीवसमासमुं कूडि जीवसमासद्वय१० मक्कुं। संयममार्गणाभेदंगळु सिद्धपरमेष्ठिगळोळु संभविसुववल्तेंदु परमागमदोम्पेळल्पटुदु । अ। दे । सा। छ। प। सू । य । ४।१। ४।४।२।१।४। १४ । १। २।२।१।१।२। चउरक्खथावरविरदसम्मादिट्ठी दु खीणमोहोत्ति । चक्खु अचक्खू ओही जिणसिद्धे केवलं होदि ॥६९१॥ चतुरिद्रियस्थावराविरतसम्यग्दृष्टितः क्षीणमोहपयंत। चक्षुरचक्षुरवधयो जिनसिद्धे केवलं भवंति ॥ १५ देशसंयतगुणस्थाने तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एव । सामायिकछेदोपस्थापनौ प्रमत्ताद्यनिवृत्तिकरणान्त चतुर्गणस्थानेष । तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्ताहारकपर्याप्ती द्वौ। परिहारविशुद्धिसंयमः प्रमत्ताप्रमत्तयोरेव । तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एव तेन सह आहारकरेकत्वासंभवात् । सूक्ष्मसांपरायसंयमः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थाने तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्तः । यथाख्यातचारित्रं उपशान्तकषायादिचतुर्गुणस्थानेषु तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तसमघातकेवल्यपर्याप्तौ द्वौ । संयममार्गणाभेदाः सिद्ध न संतीति परमागमे २० निर्दिष्टम् ।।६८९-६९०।। है,उसमें चौदह जीवसमास होते हैं। देशसंयम देशसंयत गुणस्थानमें होता है,उसमें जीवसमास एक संज्ञी पर्याप्त ही होता है। सामायिक और छेदोपस्थापना प्रमत्तसे लेकर अनिवृत्तिकरणपर्यन्त चार गुणस्थानोंमें होते हैं। उनमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और आहारक मिश्रकी अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त होते हैं । परिहारविशुद्धिसंयम प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंमें २५ ही होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त ही होता है, क्योंकि परिहारविशद्धि संयमके साथ आहारकऋद्धि नहीं होती। सूक्ष्मसाम्परायसंयत सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त ही होता है। यथाख्यातचारित्र उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानोंमें होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त तथा समुद्घात केवलीकी अपेक्षा अपर्याप्त इस तरह दो होते हैं। संयममार्गणाके भेद सिद्धोंमें नहीं होते,ऐसा परमागममें ३० कहा है ॥६८९-६९०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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